संताल अदिवासी समाज में महिलाओं की परंपरागत स्थिति
जनमत शोध संस्थान द्वारा जारी अध्ययन रिपोर्ट
भारतीय संविधान से संबंधित एक विज्ञप्ति के अनुसार झारखण्ड में संताल, मुण्डा, हो, उरांव, खड़िया, बिरहोड़, भूमिज, पहाड़िया, चीक-बड़ाइक आदि 20-30 जनजातियों के लोग ‘अनुसूचित जनजातियों’ के रूप में परिगणित हैं। इनमें से उरांव और पहाड़िया लोग द्रविड़ प्रजाति के तथा शेष लोग आग्नेय (ऑस्ट्रिक) प्रजाति के हैं। भाषा, संस्कृति,सामाजिक व्यवस्था आदि की दृष्टि से इन दोनो प्रजातियों के लोगों में अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ हैं; परन्तु समाज में महिलाओं की स्थिति के विचार से इनमें अनेक समानताएँ हैं। स्थूल रूप से यों तो इन सभी जनजातियों का सामाज समग्र भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग ही है, फिर भी उसकी कुछ अपनी विषेषताएँ भी हैं। उन्हीं विषेषताओं को लेकर अगर हम संताल आदिवासी समुदाय के महिलाओं विषेषकर उनकी पारंपरिक स्थिति को जानने समझने का प्रयास करे तो कई एसी महत्वपूर्ण बातें उभर कर सामने आती हैं जो अन्य समुदाय की महिलाओं से भिन्न सहज ही हमें आकर्षित करती हैं ।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार हिन्दुओं में जैसे मानव जाति का उद्भव ‘मनु’ और ‘श्रद्धा’ के दाम्पत्य से माना जाता है, वैसे ही इन सभी जनजातियों की परम्परागत कथाओं के अनुसार प्रत्येक जनजाति के लोगों की उत्पत्ति पुरूष और नारी की किसी-न-किसी आदिम दम्पत्ति से मानी जाती है। संताल आदिवासियों में उस आदिम दम्पत्ति का नाम ‘पिलचू हाड़ाम - पिलचू बुढ़ी’, मुंडाओं में ‘लुटकुम हाड़ाम - लुटकुम बुड़िया’, होओं में ‘लुकु हाम - लुकु बुढ़ी’ है। इस प्रकार मानव समाज के विकास में पुरूष के साथ प्रकृति की अस्मिता आदिकाल से ही इन लोगों में भी स्वीकार की जाती रही है। इसी प्रकार, ‘यत्रा नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्रा देवता’ के रूप में भारतीय संस्कृति की आधारभूत मान्यता की पृष्ठभूमि में जहाँ हमारे समाज में चंडी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि के रूप में शक्ति, समृद्धि, षिक्षा आदि की अधिष्ठात्रा देवियों को प्रतिष्ठा है, वहाँ आदिवासी समाज में भी किसी-न-किसी देवी के नाम से कल्याणकारी रूप में नारीत्व का समादर होता आया है। संतालों को ‘जाहेर एरा’ ‘गोसाँइ एरा’ और हो-मुंडाओं की ‘जयर एरा’ वैसी ही देवियों में से हैं। संताल लोगों का धर्मिक स्थल ‘जाहेर एरा’ के नाम पर ही ‘जाहेर थान’ कहलाता है, यद्यपि वहाँ अन्यान्य देवता भी संस्थापित रहते हैं।
माता, पत्नी, बहन और कन्या - सामान्यतः नारी के ये चार रूप मानव-समाज में मान्य रहते आये हैं ओैर इन चारों ही रूपों में नारी की स्थिति आदिवासी समाज में सुनिष्चित रहती आई है। प्रत्येक आदिवासी कन्या अपने पिता की ‘संपदा’ मानी जाती है, जिसके लालन-पालन, सुख-सुविधा, विवाह-संबन्धआदि का दायित्व पिता पर ही रहा करता है। प्रत्येक आदिवासी समाज हाँसदाक्, सोरेन, तिड़, भेंगरा, पिंगुवा, केरकेट्टा, तिर्की, तोपनो, सिङकू आदि विभिन्न गोत्रों में विभाजित है। यद्यपि इन गोत्रों में उच्चता-नीचता का कोई विभेद नहीं है। असल में इन गोत्रों की विषेषता यह है कि इन लोगों में समगोत्राय यौन-संबंध या विवाह-संबंध पूर्णतः निषिद्ध हुआ करता है। ऐसी अवस्था में यदि कोई आदिवासी बाला इस निषेध का उल्लंघन करती है तो उसके परिवार को जाति-च्युति या सामाजिक बहिष्कार का दण्ड भोगना पड़ता है। प्रत्येक कन्या अपने पिता का ही गोत्रा पाती है, अपनी माता का नहीं। वह अपने माता-पिता और परिवार के अन्यान्य सदस्यों की सहायिका के रूप में घर-बाहर कार्यरत रहा करती है। अपने छोटे-छोटे भाई-बहनों को खेलाना, मवेषियों को चराना, आस-पास के खेतों या उपवनों से साग तोड़ लाना, जंगलों से दतुवन और पत्ते तोड़ लाना, पत्तों के दोने और पत्तलें बनाना या उस काम में अपनी माँ, दादी आदि की मदद करने से लेकर , घर आँगन के अन्यान्य छोटे-मोटे काम करना आदि आदिवासी कन्याओं के दैनन्दिन कार्य हुआ करते हैं। बड़ी होने पर आदिवासी - बालाएँ धान रोपने, मकई कोड़ने, फसलें काट लाने, पानी भर लाने अथवा आस-पास के शहर-बाजारों में ईंट ढोने, छत पिटने, सड़कों पर और कल-कारखानों में कई तरह के काम किया करती हैं। छोटा नागपुर के अनेक शहरों में वे दतुवन और पत्तल बेचती या मोटिया का काम करती हुई भी देखी जाती हैं। इस प्रकार अपने श्रम से वे अपने परिवार की आर्थिक सहायता करने में ‘सबला’ की भूमिका निभाती हैं, ‘अबला’ बनी नहीं रहतीं। आदिवासी समाज में तिलक-दहेज का रिवाज नहीं है, बल्कि विवाह के लिए वधू-पक्ष को वर-पक्ष से कुछ-न-कुछ निष्चित धन-राषि या पशुधन मिला करता है। उसका परिमाण भिन्न-भिन्न आदिवासी-समाज में भिन्न-भिन्न हुआ करता है। यही नहीं, वधू-पक्ष द्वारा बारातियों को भोजन-पानी दिये जाने की बाध्यता भी नहीं है, सारा व्यय वर-पक्ष को ही वहन करना पड़ता है। वधू-पक्ष पर सामान्यतः बारातियों के लिए जन-वासा जो प्रायः किसी पेड़-तले हुआ करता है, जलावन, पत्तल, और भोजन बनाने के लिए मिट्टी के बर्त्तन दिये जाने का रिवाज है। इस प्रकार, स्पष्ट है कि आदिवासी-लड़कियाँ अपने माता-पिता या परिवार की ‘संकट’ नहीं, अपितु सही माने में उसकी ‘सम्पदा’ हुआ करती हैं। अब तो षिक्षा के प्रसार के साथ-साथ आदिवासी लड़कियाँ जब तक विवाहिता नहीं हो जातीं तब तक, षिक्षिकाओं, परिचारिकाओं, जन-सेविकाओं आदि के रूप में भी अर्थोपार्जन कर अपने माता-पिता की सहायिकाएँ बनी रहती हैं। समाज में क्वाँरी कन्याओं की स्थिति लगभग लड़कों के समकक्ष ही हुआ करती है, उनके नाच-गान, हाट-बाट या काम-काज के लिए कहीं आने-जाने में कोई सामाजिक व्यवधान उन पर प्रायः नहीं रहा करता है।
विवाह हो जाने पर आदिवासी लड़कियाँ अपने पति की ‘संपत्ति’ मानी जाती है, उस पर उसके पति का अधिकार हो जाता है। विवाहिता कन्या को अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं रह जाता है, परन्तु समय-समय पर अपने नैहर जाने और अपने माता-पिता से भोजन-वस्त्रा पाने की हकदार अवष्य हुआ करती है तथा फसलों की कटनी-दौनी आदि के समय अपने श्रम के एवज में कुछ ‘कोरपा’ (निजी पारिश्रमिक) भी रख सकती है, जिससे उसके छोटे-मोटे गहने-जेवर का शौक पूरा हो जा सकता है।
भाई-बहन का रिष्ता आदिवासी समाज में बहुत पवित्रा माना जाता है। भाई को अपनी प्रत्येक बहन के विवाह के समय वर-पक्ष से कुछ कपड़े और पषुधन, (साधारणतः बैल) पाने का हक और रिवाज है। संताल जाति की एक परंपरागत कथा के अनुसार किसी प्राचीन काल में एक भाई ने एक बाघ से अपनी बहन की रक्षा की थी। कुछ इसी प्रकार की कथाएँ अन्यान्य आदिवासियों में भी हैं। अपेक्षा यह की जाती है कि पर्व-त्योहारों में बहनों और बेटियों को उनकी ससुरालों से नैहर लाया जाना आवष्क है, अन्यथा समाज में निंदा होने लगती है।
विवाह में वधू-षुल्क लिये जाने पर भी व्यावहारिक अर्थ में उसे कन्या विक्रय नहीं कहा जायेगा, बल्कि वर के हाथ में कन्या का ‘दान’ ही होता है। संताल-समाज में विवाह के बाद लड़की की विदाई के समय प्रतीक भाषा में कहा जाता है, ‘‘हम चुस्त-दुरूस्त अवस्था में अपनी यह बेटी तुम्हें सौंप रहे हैं, जिसे अच्छी तरह ठोंक-बजाकर तुमने ग्रहण किया है, बाद में यह काँसा या पीतल हो जाय अथवा भाँग-फूट जाय तो उसकी जवाबदेही तुम पर होगी। हम इसकी हड्डी-पसली और राख तक तुम्हें सौंप रहे हैं, परन्तु तुम्हारे यहाँ यदि इसके कर्णरक्त, सिर रक्त गिरे तो उसकी खोज-खबर हम अवष्य लेंगे।’’ इस प्रकार आदिवासी-स्त्रा उसकी कामिनी मात्रा ही नहीं रहती बल्कि उसकी सहकर्मिणी हुआ करती है। घर-आँगन को साफ-सुथरा रखना, पानी भर लाना,रसोई बनाना, कपड़ा फींचना, धान रोपना, मकई कोड़ना फसलों की निकौनी-कटनी करना, अनाज ओसाना, बच्चों का लालन-पालन करना आदि प्रत्येक आदिवासी-गृहिणी के दैनन्दिन कार्य हैं। सहकर्मिणी ही नहीं, बच्चों के नामकरण, षिक्षा-दीक्षा, शादी-व्याह आदि के मामलों में वह अपने पति की परामर्षदात्रा भी हुआ करती है।
पर्व त्योहार, विवाह-उत्सव आदि के अवसरों पर उसे नाचने-गाने की स्वतंत्राता रहती है। इस प्रसंग में ज्ञातव्य है कि अदिवासियों के नाच-गान अपने ही समाज के अन्दर हर्षोल्लास के लिए समवेत हुआ करते हैं, प्रदर्षन के लिए नहीं। किसी प्रकार के व्यवसाय के लिए तो कदापि नहीं।
प्रदा प्रथा इन लोगों में नहीं है। साधारण तौर पर घूंघट डालने का रिवाज भी नहीं है ; परन्तु सिर के बालों को खुला रखना अनुचित माना जाता है। परिवार में देवर और ननद के साथ हँसी-मजाक का रिष्ता होता है ; परन्तु ससुर-भैंसुर (जेठ) को देवता-तुल्य माना जाता है। सास और बड़ी ननद भी पूज्य होती हैं। जेठ की तो छाया तक से बचा जाता है, उसकी खाट या बिछावन पर बैठना-सोना तो पूर्णतः निषिद्ध होता ही है। दादा-दादी, या नाना-नानी के साथ भी इन लोगों में प्रायः हँसी-मजाक हुआ करता है।
आदिवासी-समाज में तलाक का रिवाज है ; साथ-साथ विधवाओं और परित्यक्ताओं के पुनर्विवाह की प्रथा भी है। इसलिए विधवाएँ और परित्यक्तताएँ किसी भी आदिवासी समाज में भार स्वरूपा नहीं है। हाँ, उनके पुनर्विवाह में उनका वधू-षुल्क क्वाँरी कन्याओं के वधू-षुल्क की अपेक्षा कम हुआ करता है। पुनर्विवाह में क्वाँरियों की तरह विवाह के विधि-विधानों का पालन भी नहीं किया जाता है। परिस्थिति वष विधवाएँ अपने देवर के साथ पत्नीवत् रह जा सकती हैं। आदिवासियों में बहुविवाह वर्जित नहीं है, परन्तु व्यवहार में बहुविवाह प्रायः परिस्थिति-विषेष पर ही देखा जाता है।
श्यामल वर्ण; मांसल तन और हँसमुख आनन-सामान्यतः यही एक आदिवासी स्त्रा का परिचय है। वह शरीर से इतनी हष्ट-पुष्ट रहा करती हैं कि कृषि-श्रमिक के रूप में अपने गाँव घर में काम करके जीविकोपार्जन तो करती ही है, आवष्यकतानुसार ईट भट्ठो खदानों में भी काम करने या अपने पति के साथ मिट्टी काटने में हाथ बँटाती हैं। परन्तु, हल चलाना या हेंगा देना, यहाँ तक कि हल स्पर्ष करना भी आदिवासी-नारी के लिए निषिद्ध है ; इसलिए कि इन लोगों की परम्परागत मान्यताओं के अनुसार पृथ्वी नारी-स्वरूपा है। अतः नारी द्वारा हल चलाना समयोनि-संबंध-सा हो जाता है।
इसी प्रकार, जातीय पूजा-पाठ में भी आदिवासी-स्त्रियाँ प्रायः भाग नहीं लिया करती हैं। कई मामलों में बलि-मांस का भक्षण भी उसके लिए वर्जित रहा करता है। हाँ, पूजा-पाठ के अवसर पर गाँव के पुजारी (‘नायके’, ‘पाहन’) की पत्नी अपेक्षित विधि-निषेध का पालन अवष्य करती है।
माता के रूप में आदिवासी-नारी सबके आदर और श्रद्धा की पात्रा हुआ करती है। आदिवासी - लोकगीतों में माता की महिमा का बखान प्रायः मिला करता है। संताली भाषा में लड़की यदि लाड़ली ‘कुइँडी मिरू’ (महुए के फल की सुगिया) है तो पत्नी/सहकर्मिणी ‘ओड़ाक् बोंगा’ (गृह देवी) या ‘लेंगा प×जार’ (बाईं पसली=वामंगिनी) और माता जन्मदात्रा ‘तोआ दारे’ (दुग्ध-तरू) है। माता के रूप में आदिवासी-स्त्रा अपनी पुत्रा-पुत्रियों और पुत्रा-वधुओं की मार्गदर्षिका हुआ करती है और उनसे यथानुसार भोजन-वस्त्रा पाते रहने की अपेक्षा रखती है। यदि पुत्रा अनेक हों और अलग-अलग रहते हों तो माँ साधारणतः उसी के साथ रहना पसंद करती है, जिसकी घरवाली से उनका मन भरता है। माँ को काम-काज के लिए विवष किया जाना या उसकी उपेक्षा करना निन्दनीय माना जाता है, जिसके लिए पुत्रा को समाज की भर्त्सना सुननी पड़ती है।
परन्तु आदिवासी-स्त्रा के जीवन का सबसे क्रूर अभिषाप उसका डायन होना या उसे डायन माना जाना होता है। आदिवासी-समाज में भूत-प्रेत और डाइन-जोगिन का अंधविष्वास बहुत अधिक है, रोग-बिमारियोंं का कारण प्रायः उन्हें ही मान लिया जाता है, जिसके चलते कभी-कभी आदिवासी विधवाओं या बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों को अपने प्राणों से भी हाथ धोने पड़ते हैं।
इस प्रकार कुल मिलाकर परंपरागत आदिवासी-समाज में स्त्रा ‘अबला’ नहीं है, बल्कि अधिकांष मामलों में पुरूष के समानान्तर रहती हुई अपने ही पाँवों पर खड़ी होकर जीवन की विभीषिकाओं का सामना करने की क्षमता रखती है। समय क साथ-साथ बदलते दौर में इस समाज की महिलाएँ अब अपनी परंपरागत परिधि से बाहर निकल रही हैं। षिक्षा के प्रचार-प्रसार और आधुनिक सभ्यता के प्रभाव से इस समाज के महिलाओं में भी विकाष की नई चेतना जागृत हो गई है, जो समय की मांग और समाज की जरूरत भी है। बाबजूद एक बड़ी सच्चाई यह है कि आज भी सुदूर गा्रमीण इलाकों व जंगल पहाड़ों में रह रहे आदिवासी महिलाओं की एक बड़ी आबादी अपनी परंपरागत व्यवस्था की परिधि में जीवन-यापन करती अपनी जिन्दगी जी रही है।
जनमत शोध संस्थान
पुराना दुमका, केवटपाड़ा दुमका 814101 झारखण्ड