कमलेश्वर की कहानी
__कहानी बहुत छोटी सी है, मुझे ऑल इण्डिया मेडिकल इंस्टीट्यूट की सातवीं मंजिल पर जाना था। आई०सी०यू० में गाड़ी पार्क करके चला तो मन बहुत ही दार्शनिक हो उठा थाकितना दुःख और कष्ट है इस दुनिया में... लगातार एक लड़ाई मृत्यु से चल रही है... और उसके दुःख और कष्ट को सहते हुए लोग – सब एक से हैं। दर्द और यातना तो दर्द और यातना ही है – इसमें इंसान और इंसान के बीच भेद नहीं किया जा सकता। दुनिया में हर माँ के दूध का रंग एक है। खून और आंसुओं का रंग भी एक हैदूध, खन और आँसूओं का रंग नहीं बदला जा सकता... शायद उसी तरह दुःख, कष्ट आर यातना क रगो का भी बटवारा नहीं किया जा सकता। इस विराट मानवीय दर्शन से मुझे राहत मिली थी.... मेरे भीतर से सदियाँ बोलने लगी थीं। एक पुरानी सभ्यता का वारिस होने के नाते यह मानसिक सुविधा जरूर है कि तुम हर बात, घटना या दुर्घटना का कोई दार्शनिक उत्तर खोज सकते हो। समाधान चाहे न मिले, पर एक अमूर्त दार्शनिक उत्तर जरूर मिल जाता है।
और फिर पुरानी सभ्यताओं की यह खुबी भी है कि उनकी परम्परा से चली आती संतानों को एक आत्मा नाम की अमूर्त शक्ति भी मिल गई है - और सदियों पुरानी सभ्यता मनुष्य के क्षुद्र विकारों का शमन करती रहती है... एक दार्शनिक दृष्टि से जीवन की क्षण-भंगुरता का एहसास कराते हुए सारी विषमताओं को समतल करती रहती है... का मुझे अपने उस मित्र की बातें याद आईं जिसने मुझे संध्या के संगीन ऑपरेशन की बात बताई थी और उसे देख आने की सलाह दी थी। उसी ने मुझे आई०सी०यू० में संध्या के केबिन का पता बताया था – आठवें फ्लोर पर ऑपरेशन थिएटर्स हैं और सातवें पर संध्या का आ०सी०यू०। मेजर ऑपेरशन में संध्या की बड़ी आँत काटकर निकाल दी गई थी और अगले अड़तालीस घण्टे क्रिटिकल थे...
रास्ता इमरजेंसी वार्ड से जाता था। एक बेहद दर्द भरी चीख इमरजेंसी वार्ड से आ रही थी. वह दर्द भरी चीख तो दर्द भरी चीख ही थी- कोई घायल मरीज असह्य तकलीफ से चीख रहा था। उस चीख से आत्मा दहल रही थी... दर्द की चीख और दर्द की चीख में क्या अन्तर था! द्ध, खुन और आँसुओं के रंगों की तरह चीख की तकलीफ भी तो एक-सी थीउसमें विषमता कहाँ थी?.....
मेरा वह मित्र जिसने मुझे संध्या को देख आने की फर्ज अदायगी के लिए भेजा था, वह भी इलाहाबाद का ही था। वह भी उसी सदियों पुरानी सभ्यता का वारिस था। ठेठ इलाहाबादी मौज में वह भी दार्शनिक की तरह बोला था- अपना क्या है? रिटायर होने के बाद गंगा किनारे एक झोपड़ी डाल लेंगे। आठ-दस ताड़ के पेड़ लगा लेंगे... मछली मारने की एक बंसी...दो चार मछलियाँ तो दोपहर तक हाथ आएँगी ही... रात भर जो ताड़ी टपकेगी उसे फ्रिज में रख लेंगे...
-फ्रिज में?
- और क्या... माडर्न साधु की तरह रहेंगे। मछलियां तलेंगे, खाएँगे और ताड़ी पीएँगे...और क्या चाहिए... पेंशन मिलती रहेगीऔर माया-मोह क्यों पालें? पालेंगे तो प्राण अटके रहेंगे... ताड़ी और मछली... बस, आत्मा ताड़ी पीकरमछली खाके आराम से महाप्रस्थान करे... न कोई दुःख, न कोई कष्ट... लेकिन तुम जाके संध्या को देख जरूर आना... वो क्रिटिकल है...
मेरा मित्र अपने भविष्य के बारे में कितना निश्चिन्त था, यह देखकर मुझे अच्छा लगा था
यह बात सोच-सोचकर मुझे अभी तक अच्छा लग रहा था, सिवा उस चीख के जो इमरजेंसी वार्ड से अब तक आ रही थी... और मुझे सता रही थी... इसीलिए लिफ्ट के आने में जो देरी लग रही थी वह मुझे खल रही थी
आखिर लिफ्ट आयी! सेवन-सात – मैंने कहा और संध्या के बारे में सोचने लगा। दो-तीन वार्ड बॉय तीसरी और चौथी मंजिल पर उतर गए।
पाँचवीं मंजिल पर लिफ्ट रुकी तो कुछ लोग ऊपर जाने के लिए इन्तजार कर रहे थे। इन्हीं लोगों में था वह पाँच साल का बच्चा- अस्पताल की धारीदार बहुत बड़ी-सी कमीज पहने हुए... शायद उसका बाप, वह जरूर ही उसका बाप होगा, उसे गोद में उठाए हए था... उस बच्चे के पैरों में छोटी-छोटी नीली हवाई चप्पलें थी, जो गोद में होने के कारण उसके छोटे-छोटे पैरों में उलझी हई थीं
अपने पैरों से गिरती हुई चप्पलों को धीरे से उलझाते हुए बच्चा बोला- बाबा! चप्पल...
उसके बाप ने चप्पलें उसके पैरों में ठीक कर दीं। वार्ड बॉय व्हील-चेयर बढ़ाते हुए बोला-- आ जा, इसमें बैठेगा! बच्चा हल्के से हँसा। वार्ड बॉय ने उसे कुर्सी में बैठा दिया... उसे बैठने में कुछ तकलीफ हुई पर वह कुर्सी के हत्थे पर अपने नन्हें-नन्हें हाथ पटकता हुआ भी हँसता रहा। दर्द का अहसास तो उसे भी था पर दर्द के कारण का अहसास उसे बिल्कुल नहीं था। वह कुर्सी में ऐसे बैठा था जैसे सिंहासन पर बैठा हो... कुर्सी बड़ी थी और वह छोटावार्ड बॉय ने कुर्सी को पुश किया। वह लिफ्ट में आ गया। उसके साथ ही उसका बाप भीउसका बाप उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरता रहा।
लिफ्ट सात पर रुकी, पर मैं नहीं निकला। दो-एक लोग निकल गए। लिफ्ट आठ पर रुकी। यहीं ऑपरेशन थिएटर थे। दरवाजा खुला तो एक नर्स जिसके हाथ में सब पचे थे, उसे देखते हुए बोली- आ गया तू!
उस बच्चे ने धीरे से मुस्कराते हुए नर्स से जैसे कहा - हाँ । उसकी आँखें नर्स से शर्मा रही थीं और उनमें बचपन की बड़ी मासूम दूधिया चमक थी। व्हील-चेयर एक झटके के साथ लिफ्ट से बाहर गई नर्स ने उसका कंधा हल्के से थपका...।
'बाबा चप्पल- वह तभी बोला-- 'मेरी चप्पल'...
उसकी एक चप्पल लिफ्ट के पास गिर गई थी उसके बाप ने वह चप्पल भी उसे पहना दी। उसने दोनों पैरों की उँगलियों को सिकोड़ा और अपनी चप्पलें पैरों में कस लीं।
लिफ्ट बंद हुई और नीचे उतर गई।
वार्ड बॉय बच्चे की कुर्सी को पुश करता हुआ ऑपरेशन थिएटर वाले बरामदे में मुड़ गया। नर्स उसके साथ ही चली गई। उसका बाप धीरे-धीरे उन्हीं के पीछे चला गया।
तब मुझे याद आया कि मुझे तो सातवीं मंजिल पर जाना था। संध्या वहीं थी। मैं सीढ़ियों से एक मंजिल उतर आया। संध्या के डॉक्टर पति ने मुझे पहचाना और आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाया। हाथ की पकड में मायसी और लाचारी थी। कुछ पल खामोशी रहीफिर मैंने कहा – मैं कल ही वापस आया तभी पता चला। यह एकाएक कैसे हो गया?
__ - नहीं, एकाएक नहीं, ब्लीडिंग तो पहले भी हई थी, पर तब कंट्रोल कर ली गई थी। पंद्रह दिनों बाद फिर होने लगी। एक्सेसिव ब्लीडिंग। ...चार घण्टे ऑपरेशन में लगे... एण्ड यू नो, वी डॉक्टर्स आर वर्सट पेशेंटस ! वो संध्या के बारे में भी कह रहे थे। संध्या भी डॉक्टर थी।
- यस ! आप तो सब समझ रहे होंगे। संध्या को भी एक-एक बात का अंदाज हो रहा होगा मैंने कहा।
- लेकिन वो बहुत करेजसली बिहेव कर रही है संध्या के डॉक्टर पति ने कहा - बोल तो सकती नहीं... पल्स भी गर्दन के पास मिली... आर्टीफिशियल रेस्पटेशन पर ... एक तरह से देखिए तो उसका सारा शरीर आराम कर रहा है और सब कुछ आर्टीफिशिल मदद से ही चल रहा है। संध्या के डाक्टर पति ज्यादातर बातें मुझे मेडिकल टर्मस में ही बताते रहे और मैं उन्हें समझने की कोशिश करता रहाबीच-बीच में मैं इधर-उधर की बातें भी करता रहा।
– संध्या का भाई भी आज मा.. किसी तरह उसे जापान होते हुए टिकट मिल गया उन्होंने बताया।
- यह बहुत अच्छा हुआमैंने कहा।
- आप देखना चाहेंगे?
– हाँ, अगर पॉसिबिल हो तो...
-आइए, देख तो सकते हैं। भीतर जाने की इजाजत नहीं हैवैसे तो सब डॉक्टर फ्रेंड्स ही हैं, पर...
-नहीं-नहीं, वो ठीक भी है...
-वो बोल भी नहीं सकती.. वैसे आज कांशस है... कुछ कहना होता है तो लिख के बता देती है। उन्होंने कहा और एक केबिन के सामने पहुँचकर इशारा किया।
मैंने शीशे की दीवार से संध्या को देखा। वह पहचान में ही नहीं आई। दो डॉक्टर और नर्स उसे अटैण्ड भी कर रहे थे... और फिर इतनी नलियाँ और मशीनें थीं कि उनके बीच संध्या को पहचानना मुश्किल भी था।
संध्या होश में थी। डॉक्टर को देख रही थी। डॉक्टर उसका एक हाथ सहलाते हुए उसे कुछ बता रहा था। मैंने संध्या को इस हाल में देखा तो मन उदास हो गया। वह कितनी लाचार थी। बीमारी और समय के सामने आदमी लाचार होता है... कुछ कर नहीं पाता। मैंने मन ही मन संध्या के लिए प्रार्थना की, किससे की यह नहीं मालूम -ऐसी जगहों पर आकर भगवान पर ध्यान जाता भी है और किसी के शुभ के लिए उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेने में अपना कुछ नहीं जाता – सिवा प्रार्थना के कुछ शब्दों के।
हम आई०सी०यू० से हटकर फिर बरामदे में आ गएवहाँ बैठने के लिए कोई जगह नहीं थी। बरामदे बैठने के बनाए भा नहा गए था सध्या या डाक्टर का बहन सनीचे चादर बिछाए बैठी थी डॉक्टर के कुछ दोस्त एक गुच्छे में खड़े थे।
- अभी तो, बाद में, एक ऑपरेशन और होगा। संध्या के डॉक्टर पति ने बताया – तब छोटी आंत को सिस्टम से जोड़ा जाएगाखैर, पहले वो स्टेबलाइज करे, फिर रिकवरी का सवाल है... इसमें ही करीब तीन महीने लग जाएँगे... उसके बाद मैं सोचता हूँ – उसे अमेरिका ले जाऊँगा !
- यह ठीक रहेगा।
इसके बाद हम फिर इधर-उधर की बातें करते रहे। मैं संध्या की संगीन हालत से उनका ध्यान भी हटाना चाहता था। इसके सिवा मैं और कर भी क्या सकता था। और डॉक्टर के सामने यों खामोश खड़े रहना अच्छा भी नहीं लग रहा था।
यह जताते हुए कि अस्पताल वालों से छुपाकर मैं सिगरेट पीना चाहता हूँ – मैं खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया। बाहर लू चल रही थी। नीचे धरातल पर कुछ लोग आ-जा रहे थे। वे ऊपर से बहुत लाचार और बेचारे लग रहे थे और मेरे मन से सबके शुभ के लिए सद्भावना की नदियाँ फूट रही थीं... ऐसे में तुम सोचो –लगता है मनुष्य ने मनुष्य के साथ तो सघन और उदात्त सम्बन्ध बना लिए हैं, पर ईश्वर के साथ वह ऐसा नहीं कर पाया है। मनुष्य अपने ईश्वर के दुःख-सुख में शामिल नहीं हो सकता। ईश्वर से उसका सम्बन्ध सिर्फ दाता और पाता का है। वह देता है और मनुष्य पाता है। कितना इकतरफा रिश्ता है यह... और फिर अगर तुम यह भी मान लो कि ईश्वर ही मनुष्य को बनाता है तो ईश्वर की क्षमता पर विश्वास घटने लगता है – सृष्टि के आदि से वह मनुष्य को बनाता आ रहा है परंतु असंख्य प्राणियों को बनाने के बावजूद वह आज तक एक सहज सम्पूर्ण और मुकम्मिल मनुष्य नहीं बना पाया। कुछ कमी कहीं तो ईश्वर की व्यवस्था में भी है.. हो सकता है उनका आदि -कलाकार कुम्भकार उन्हें मिट्टी सप्लाई करने में कुछ घपला कर रहा हो। ...इस रहस्य का पता कौन लगाएगा? रहस्य ही रहस्य को जन्म देता है। शायद इसीलिए मनुष्य ने ईश्वर को रहस्य ही रहने दिया... जो सत्ता या शक्ति विश्वास के निकष पर खरी न उतरे, उसे रहस्य बना देना ही बेहतर है... और किया भी क्या जा सकता है...
लू के एक थपेड़े ने मेरा मुँह झुलसा दिया। डॉक्टर अपने चिन्ताग्रस्त शुभचिन्तकों के गच्छे में खडे थे - और सबके चेहरे कुछ ज्यादा सतर्क थे।
ब्लडप्रेशर गिर रहा है....
आई०सी०यू० में डॉक्टरों और नौं की आमदरफ्त से लग रहा था कि कोई कठिन परिस्थिति सामने है। कुछ देर बाद पता चला कि नीडिल कुछ ढीली हो गई थी...उसे ठीक कर दिया गया है और ब्लडप्रेशर ठीक से रिकॉर्ड हो रहा है...सबने राहत की साँस लीमौत से लड़ना कोई मामूली काम नहीं है। ईश्वर ने तो मौत पैदा की ही है, पर मौत तो मनुष्य भी पैदा करता है। एक तरफ जीवन के लिए लड़ता है और दूसरी तरफ मौत भी बांटता है – यह द्वंद्व ही तो जीवन है... यह द्वंद्व और द्वैत ही जीवित रहने की शर्त है और अद्वैत या समानता तक पहुँचने का साधन और आदर्श भी। आध्यात्मिक अद्वैत जब भौतिकता की सतह पर आता है और मनुष्य के प्रश्न सुलझाता है तभी तो वह समवेत समानता का दर्शन कहलाता है...।
सिगरेट से मुँह कड़वा हो गया था। लू वैसे ही थपेड़े मार रही थी। सीमेण्ट के पलस्तर का दहकता-चिलचिलाता तालाब सामने फैला था – कोई एक आदमी जलते नंगे पैरों से उसे पार कर रहा था।
___ मैंने पलटते हए लिफ्ट की तरफ देखाडॉक्टर मेरा आशय समझ गए थे, लेकिन तभी राजनीतिज्ञ-से उनके कोई दोस्त आ गए थे। शुरु की पूछताछ के बाद वे लगभग भाषण-सा देने लगे – अब तो अग्नि मिसाइल के बाद भारत दुनिया का सबसे शक्तिशाली तीसरा देश हो गया है और आने वाले दस वर्षों में हमें अब कोई शक्ति महाशक्ति बनने से नहीं रोक सकती। इंग्लैंड और फ्रांस की पूरी जनसंख्या से ज्यादा बड़ा है आज भारत का मध्यवर्ग... अपनी संपन्न्ता ... भारतीय मध्यवर्ग जैसी शक्ति और संपन्नता उन देशों मध्यवर्ग के पास भी नहीं है...
तभी एक चिन्ताग्रस्त नर्स तेजी से गुजर गई और सन्नाटा छा गया। चिन्ता के भारी क्षण जब कुछ हल्के हुए तो मैंने फिर लिफ्ट की तरफ देखाडॉक्टर साहब समझ गए - आपको ढाई –तीन घण्टे हो गए...क्या-क्या काम छोड़ के आए होंगे...और वे लिफ्ट की ओर बढ़े। लिफ्ट आई, पर वह ऊपर जा रही थी। डॉक्टर साहब को मेरी खातिर रुकना न पड़े, इसलिए मैं लिफ्ट में घुस गया।
लिफ्ट आठ पर पहुंची। वहाँ ज्यादा लोग नहीं थे। पर एक स्ट्रेचर था और दो-तीन लोग। स्ट्रेचर भीतर आया उसा क साथ लाग भा। स्ट्रचर पर चादर म लिपटा बच्चा पड़ा हुआ थावह बेहोश था। वह आपरेशन के बाद लौट रहा था। उसके गालों और गर्दन के रेशमी रोएँ पसीने से भीगे हुए थे। माथे पर बाल भी पसीने के कारण चिपके हुए थे।
उसका बाप एक हाथ में ग्लूकोज की बोतल पकड़े हुए था... ग्लूकोज की नली की सुई उसकी थकी और दूधभरी बाँह की धमनी में लगी हुई थी.. उसका बाप लगातार उसे देख रहा था... वह शायद पसीने से माथे पर चिपके उसके बालों को हटाना चाहता था इसलिए उसने दसरा हाथ ऊपर किया. पर उस हाथ में बच्चे की चप्पलें उसकी उंगलियों में उलझी हुई थी. वह छोटी-छोटी नीली हवाई चप्पलें....।
मैंने बच्चे को देखा। फिर उसके निरीह बाप को।
मेरे मुँह से अनायास निकल ही गया – इसका...
- इसकी टाँग काटी गई है – वार्ड बॉय ने बाप की मुश्किल हल कर दी।
- ओह ! कुछ हो गया था? मैंने जैसे उसके बाप से ही पूछा। वह मुझे देखकर चुप रह गया... उसके ओंठ कुछ बुदबुदाकर थम गए... लेकिन वह भी चुप नहीं रह सकाएक पल बाद ही बोला – जाघ की हड्डी टूट गई थी...
- चोट लगी थी?
- नहीं, सड़क पार कर रहा था... एक गाड़ी ने मार दिया- वह बोला और मेरी तरफ ऐसे देखा. जैसे टक्कर मारने वाली गाटी मेरी दी थी
फिर वह वीतराग होकर अपने बेटे को देखने लगा
पाँचवीं मंजिल पर लिफ्ट रुकी। बच्चों का वार्ड इसी मंजिल पर था। लिफ्ट में आने वाले कई लोग थे। वे सब स्ट्रैचर निकाले जाने के इन्तजार में बेसब्री से रुके हुए थे... वार्ड बॉय ने झटका देकर स्टेचर निकाला तो बच्चा बोरे की तरह हिल उठा, अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया- धीरे से...।
- ये तो बेहोश है इसे क्या पता? स्ट्रेचर को बाहर पुश करते हुए वार्ड बॉय ने कहा।
उस बच्चे का बाप खुले दरवाजे से टकराता हुआ बाहर निकला तो एक नर्स ने उसके हाथ की ग्लूकोज की बोतल पकड़ ली।
लिफ्ट के बाहर पहुँचते ही उसके बाप ने उसकी दोनों नीली हवाई चप्पलें वहीं कोने में फेंक दीं फिर कछ सोचकर कि शायद उसका बेटा होश में आते ही चप्पलें माँगेगा, उसने पहले एक चप्पल उठाई... फिर दूसरी भी उठा ली और स्ट्रेचर के पीछे-पीछे वार्ड की तरफ जाने लगा।
____ मुझे नहीं मालूम कि उसका बेटा जब होश में आएगा तो क्या माँगेगा, चप्पल माँगेगा या चप्पलों को देखकर अपना पैर माँगेगा...
बेसब्री से इन्तजार करते लोग लिफ्ट में आ गए थे। लिफ्टमैन ने बटन दबाया। दरवाजा बन्द हआ और वह लोहे का बन्द कमरा नीचे उतरने लगा।