व्यंग्य .................मैं श्मशान घाट से बोल रहा हूँ
हद हो गयी ! देश को लंबी लंबी लाईनों का तमाशा बना दिया गया l जिंदा लाईन, मुर्दा लाईन, देश तमाशा लाईन का l राशन की लंबी लाईन में राशन तो नसीब हुआ नहीं, कोरोना ने हमें धर दबोचा l अस्पताल की लंबी लाईन ने हमें श्मशान घाट पहुंचा दिया l आखिर यहाँ भी तीन दिन से लाईन में लेटा हुआ हूँ l अभी तक नंबर नहीं आया l 45 डिग्री टेम्प्रेचर में आम की तरह पक गया हूँ l एक दो दिन और रहा तो कद्दू की तरह फट जाऊँगा l कीड़े प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की तरह आपदा का हवाई सर्वेक्षण करने लगेंगे l लेकिन श्मशान घाट पर अंतिम-संस्कार की व्यवस्था भी कोरोना वायरस की तरह बेकाबू है l सरकार के पास अस्पताल, बेड, डाक्टर और दवा नहीं, ज़िंदा रखने का राशन नहीं, पीने लायक साफ़ पानी नहीं और घर पहुँचने के लिए साधन नहीं l आखिर सरकार क्या कर रही है l मैंने पता नहीं कितनी बार वोट डालकर कई पार्टियों की सरकारें बनवाई, इसी दिन के लिए कि क्या शुकून से मेरी लाश भी नहीं जलने पाएगी ?
मेरी बंद आँखों के सामने अब तक का दृश्य कटी पतंग की तरह तैरने लगा, जिसकी डोर तक इस व्यवस्था ने लूट ली l आखिरकार इलाज के अभाव में मैं स्वर्गवासी हो ही गया l मुझे भी शुकून मिला कि चलो कोरोना की जलालत से मुक्ति मिली l मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा l मुझे श्मशान घाट लाया गया l लेकिन वहां तो मुर्दों की लंबी लाईन लगी थी l मैने अपने ठीक आगे वाले मुर्दे से पूंछा भाई साहब आप श्मशान घाट से इतनी दूर क्यों लेटे है l उसने पसीना पोंछा, लंबी सांस लेकर दास्ताँ बयाँ की, बताया मुझे यहाँ पहुंचे तीन दिन हो चुके हैं l अभी तक नंबर नहीं आया l देखिए कब ऊपर वाला आम की तरह धीरे-धीरे पक रहे इस शरीर का नंबर लगाता है l मुझे तो चक्कर आ गया l यहाँ भी जाम l सरकार ने शुकून से जलने की भी व्यवस्था नहीं की l
मृत्यु-शय्या पर ही मेरे सामने सरकारी-तंत्र की पूरी पिक्चर घूम गई l मैं यू.पी के सुलतानपुर जिले का रहने वाला साधारण मास्टर का बेटा था l मुझे किसी तरह बीए कराया गया l उसके बाद पढ़ाने की क्षमता परिवार में न थी l यूपी में रोजगार था नहीं इसलिए मुझे दिल्ली जाना पड़ा l वहां जूते की फैक्ट्री में नौकरी मिल गई l नौकरी क्या थी कुल मिलाकर दो हजार रुपया महीना पगार थी l यह बात आज से करीब 20 साल पहले की है, तब मैं 18 साल का युवा था l अचानक कोरोना की वजह से लाकडाउन हो गया l काम धंधा बंद हो गया l खाने के लाले पड़ गए l घर जाने का विचार बनाया लेकिन सरकार का तुगलकी फरमान पैर बाहर निकालने की इजाजत नहीं देता था, इसलिए हिल नहीं पाया l जो थोड़े पैसे धान की रोपाई के लिए घर भेजना था, साफ़ हो गया, अब तो जहर खरीदने के पैसे नहीं बचे थे l
इसी बीच आशा की किरण तब जगी जब दिल्ली सरकार ने कहा चिंता की बात नहीं सबको अनाज मुफ्त में दिया जाएगा, जैसे सांसदों और विधायकों को मुफ्त में दिया जाता है l मुझे भी लगा की दिल्ली सरकार तो अन्ना भक्त चला रहे हैं यहाँ तो कथनी-करनी में अंतर नहीं होगा l लेकिन मुझे क्या पता कि यहाँ तो फेंकने की प्रतियोगिता जारी है, क्योंकि सरकार को उम्मीद थी कि इस बार के ओलंपिक में फेंकने वालों का खेल भी शामिल किया जाएगा l इसलिए उसकी प्रैक्टिस चल रही है l दिल्ली में दो लोगों के बीच फेंकने में जो अव्वल आएगा वही भारत की तरफ से शिरकत करेगा, उसी को ओलंपिक में भारत की तरफ से भेजा जाएगा l इधर से जैसे ही फेंका गया कि दिल्ली के लोग घबराएं न सबको राशन मिलेगा l मैं सुबह आठ बजे ही राशन की लाईन में पानी लेकर लग गया l जबकि दुकान खुली साढ़े दस बजे l लेकिन तब तक इतने लोग लाईन में लग चुके थे कि मेरा नम्बर शाम को चार बजे आया l दुकानदार ने कहा राशनकार्ड लाओ, मैंने कहा मेरे पास आधारकार्ड है l कोटेदार बोला आधारकार्ड पर राशन नहीं मिलेगा जनाब ! मैंने बोला भाई साहब! सरकार ने तो कहा है कि इस पर भी राशन मिलेगा l दुकानदार ने कहा समय बर्बाद न करिए बगल होकर बात करिए, सरकार ने तो कहा था कि हम लोकपाल बनाएंगें, बनाया, पार्टी का चंदा सार्वजनिक करेंगें किया ? मैंने कहा, नहीं l कोटेदार ने कहा बस ऐसे समझिए l यहाँ जानवर तो कीमती है, लेकिन इंसान नहीं l यहाँ लाशों पर ही सरकार बनाने का व्यापार होता है l मेरा सिर चकराने लगा, कमरे तक पहुँचते-पहुँचते खांसी जुकाम और बुखार ने धर दबोचा l पता चला कोरोना हो गया l अस्पताल पहुंचा तो कहा गया घर पर रहिए ठीक हो जायेंगें, ऐसा सरकार ने कहा है, मेरे पास बेड नहीं हैं l मैंने कहा सरकार ने तो ट्रेन, होटल, धर्मशाला, स्टेडियम, पार्क और स्कूल को भी अस्पताल बना दिया है l डाक्टर ने कहा ! जब हो जाएँ तब आईएगा टीवी ज्यादा न देखा करिए l सरकार तो कह रही है दिल्ली वाले मिलकर कोरोना हराएंगे l उधर देखा नहीं बड़े मियाँ ने कहा कि आत्म-निर्भर बनों, पढ़े-लिखे हो इशारे समझा करो l आखिरकार लंबी लड़ाई के बाद किसी तरह मेरे प्राण ने शरीर को अलविदा कहा जैसे हमारे सांसद, विधायक चुनाव के बाद अलविदा कहकर चले जाते हैं l मैं सोंचने लगा कि सभ्यता, संस्कृति और मानवता की गिलोई कदम-कदम पर चबाने वाला यह देश कितना बेरहम है, मरे हुए आदमी की अंतिम-इच्छा तक की व्यवस्था नहीं कर सका, तो इससे उम्मीद रखना बेकार है l इच्छा हुई की उठकर व्यस्था के खिलाफ बंदूक उठाकर बगावत कर दूँ l लेकिन मैं लाश की मर्यादा को भंग नहीं करना चाहता था l लोगों का लाशों पर से भी विश्वास उठ जाएगा l इसलिए मैं चुपचाप लेटा रहा और भगतसिंह, सुभाष, अशफाक, बिस्मिल, लाजपत, नेहरु, पटेल, प्रसाद, लाजपत, और गांधी पर मुस्कराने लगा l
(विजय कुमार पाण्डेय), अधिवक्ता A-1355/6, इंदिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.)9415463326
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