संत तुलसी पर लिखे उपन्यास से जुड़ी रोचक कथा


गोस्वामी तुलसीदास की जीवनी और को लेकर प्रायः विवाद रहा है कि वह बांदा जनपद का राजापुर क्षेत्र है अथवा सूकर खेत या सोरों? यह विवाद हमेशा से विद्वजनों के लिए विमर्श का और शोधार्थियों के लिए खोज का विषय बना रहा है। डॉ. माता प्रसाद गुप्त, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और डॉ. रामदत्त भारद्वाज आदि हिंदी के मनीषियों ने उनकी जन्मतिथि, विवाह आदि को प्रामाणिकता की कसौटी पर काफी हद तक कसा है परंतु अब भी उनकी सर्वमान्य प्रामाणिक जीवनी का बहुधा अभाव ही है। इस साहित्यिक सांस्कृतिक शून्य को काफी हद तक भरने का प्रयास अमृतलाल नागर ने तब किया था जब उन्होंने “मानस का हंस" नामक उपन्यास लिखा थाइस उपन्यास को लिखे जाने की कथा भी कम रोचक नहीं है। दरअसल बंबई से डॉ. धर्मवीर भारती के संपादन ने प्रकाशित होने वाले साहित्यिक पत्र “धर्मयुग” के उप संपादक डॉ. शिव प्रताप सिंह ने 1970 में नागर जी के सम्मुख मानस चतुष्शदी मानने का विचार रखा। नागर जी ने इसको गंभीरता से लेते हुए अपने फिल्मकार मित्र महेश कौल से तुलसीदास के जीवन वृत्त पर आधारित फिल्म बना कर उसे मानस चतुष्शदी को रिलीज करने का सुझाव दिया। इस सुझाव पर महेश जी ने आश्चर्य चकित होकर नागर जी से उल्टे प्रश्न कर डाला था -  "पंडित जी, क्या तुम चाहते हो कि मैं भी चमत्कारबाजी की चूहा दौड़ में शामिल हो जाऊं?


आप जानते है हैं कि गोस्वामी जी की प्रामाणिक जीवन कथा कहां है?" ___ मित्र महेश कौल के इस वक्तव्य लिखा ने ही नागर जी को तुलसीदास पर आधारित उपन्यास लिखने की प्रेरणा दी। महेश ने भी उनका उत्साह बढ़ाया और कहा किदो महीने में स्क्रिप्ट लिख डालो तो फिल्म बनाते हैं। नागर जी ने उत्तर दिया - इस पर आधारित उपन्यास लिखूगा। पहले इस पर आधारित उपन्यास लिखूगा। तब तक तुम अपनी हाथ लगी फिल्म अग्निरेखा पूरी करो। उल्लेखनीय है कि उन दिनों महेश कौल फिल्म अग्नि रेखा के निर्माण में संलिप्त थे। इस प्रकार नागर तुलसी जीवन पर आधारित उपन्यास लिखने के संकल्प के साथ बंबई से लखनऊ आ गए और राजस्व परिषद लखनऊ के तत्कालीन अध्यक्ष जनार्दन दत्त शुक्ल को अपना संकल्प बताया। शुक्ल धर्मपरायण सुधि व्यक्तित्व के स्वामी थे। सो उन्होंने फैजाबाद जनपद के जिलाधिकारी से कहकर अमृतलाल नागर के विश्राम की आरामदायक व्यवस्था अयोध्या के तुलसी स्मारक भवन में करा दी। इस प्रकार 4 जून 1971 को तुलसी स्मारक भवन अयोध्या में “मानस का हंस" अवतरित होने के लिए शनैः शनैः आकार लेने लगा। 294 दिनों के सतत् परिश्रम के उपरांत 23 मार्च 1972 को जब यह पूर्ण हुआ तो स्वाभाविक रूप से अमृतलाल नागर इस खुशखबरी की पहली सूचना महेश कौल को ही देना चाहते थे। किंतु पता चला कि महेश जी अस्वस्थ थे और बंबई के नानावटी अस्पताल में भर्ती थे। अंततः 2 जुलाई 1972 को महेश जी ने नश्वर संसार से विदा ले ली तो नागर जी ने इस उपन्यास की भूमिका में उक्त घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है


'नियति ने महेश जी को 'अग्नि रेखा नहीं लांघने दी। गत 2 जुलाई को उनका देहावसान हो गया। किताब प्रकाशन के अवसर पर महेश कौल का न रहना कितना खल रहा है, यह शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाता।


महेश के देहावसान के साथ ही मानस चतुष्शदी पर तुलसीदास की जीवनी पर आधारित फिल्म बनाने का सपना मात्र सपना भर ही रह गया और नागर का उपन्यास 'मानस का हंस' जो तुलसीदास के जीवन पर बनने वाली फिल्म की पटकथा का प्रारंभिक सोपान था, मात्र एक उपन्यास ही बनकर रह गया, पटकथा में न ढल सका। महेश कौल के स्वर्गवासी हो जाने के कारण वह योजना तो आकार न ले सकी परन्तु दैवयोग से तुलसीदास के जीवन वृत्त का काफी कुछ प्रामाणिक साक्षीकरण एवं अभिलेखीकरण अवश्य हो गया। महेश कौल जी की आखिरी फिल्म “अग्नि रेखा" भी उनकी मृत्यु के बाद 1973 में ही रिलीज हो सकी थी।


अमृत विचार से साभार


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