दुमंज़िले की खिड़कियों से
दुमंज़िले की खिड़कियों से
याद आते हैं, वो लम्हें
जब झांकता हूं नीचे
दुमंज़िले की इन खिड़कियों से।
कि जैसे एक बड़ाबाजार
लगा करता था.
कि हर सामान,
बड़ी शिद्दत से बिका करता था।
कहीं चूड़ियों के ठेले पे,
अक्सर, औरतें मोलभाव
किया करती थीं।
तो कहीं पान के खोखे पे
बनारसी खुशबू महका करती थी।
खिलौनों की दुकान पे,
बच्चों की, गज़ब भीड़
उमड़ा करती थी।
यकीं मानो, हप्पूहलवाई की मिठाइयां
हाथों-हाथ बिका करती थीं।
गली के आखिरी छोर पे
गुप्ताजी की पकोड़ियां तला करती थीं।
वहीं बगल में,
रहमान के काले-खट्टे की
चुस्कियां हर शाम लगा करती थीं।
अब अज़ीब सन्नाटा पसरा है,
मोहल्लों नकोई रीति है,
न है कोई रिवाज़।
नसुबह, आरती की गूंज है
न शाम, अज़ान की आवाज़।
खबर है, कि कुछ दिन ये वक़्त,
ज़रूर सतायेगा।
है चल रहा बुराजो ये
वक़्त ही तो है; बदलही जायेगा।
छाने दो इन अंधेरों को
पता है मुझे, कि वो उजला सवेरा ज़रूर आएगा।
एक दिन फिर से देखूगा,
दुमंज़िले की इन्हीं खिड़कियों से
वो बीता कल,
दुबारा मुस्कुरायेगा।