विकास की चीलगाड़ियां
मन के हारे हार है, मन की जीते जीत। माते आसमान की ओर देखते हुए कह रहे है बार-बार।
क्यों? नहीं जानता कोई । जानना चाहता भी नही कोई। जानना सम्भव भी नहीं किसी के लिए भी । सुन कौन पायेगा कि माते ने बोल क्या अभी-अभी । वे तो जैसे मन ही मन धोक रहे है शब्दों को। मन ही मन धोकते है अब माते। किसी की मौजूदगी में बोलते ही नहीं।
सुबह-सवेरे रोजाना के बखत ही उठे थे माने। दैनिक कर्मो से निवृत्त हो, कुंएतक आये थे। ठकुरजू के स्नान के लिए पानी खीचा था फिर लौट पड़े थे,अपनी बाखर की ओर। रोजाना की तरह ठाकुरजू में ध्यान लगाना चाहा, मगर ध्यान था कि बंट- बंट जाता था। शोरथा कि बढ़-बढ़ जाता था। मन था कि उड़-उड़ जाता था।
आज अर्चना-आराधना न हो सकेगी हम से। मन ही मन सोचा माते ने। मन के कहीं और रहते ठाकुरजू में मन रमाने का ढोंग छलावा है अपने आप से, भगवान से। सो झटपट ठाकुरजू कोभोग लगाकर, प्रणाम कर देहरी से बाहर आए और आकर बैठ गए बाखर केबाहर नीम के नीचे । यहां से घटियां नीच का पूरा गांव दीखता है न। अब सही से बैठ-बैठे देखते हैमाते गांव को।
आसमान में एक के बाद एक चीलगाड़ी आरही है सरसराती। सुबह से तांता लगा है इनका। घरर, घरर, फरर, फरर। कभी केवल गूंज सुनाईदेती है,कभी दूर आसमान में,बहुत ऊँचे चिरैया -सी फर्ररसे उड़ती दीखती है और कभी दूर राजघाट की ओर नीचे उतरती चीगाड़ी कापंखा चारों ओर चक्कर काटतादीखता है। सुदर्शन चक्र-सा पंखा। चारों ओर के भूत-व्यन्तरों से चीलगाड़ी में बैठे सवार की रक्षा करता हो जैसे।
कहां से आ रही है ये मुतकेरी चीलगाड़ियाँ। कहां जा रही है ये गल्लन चीलागाड़ियां। क्या प्रयोजन है इनका। हमारे कान फाड़ना चाहती है क्या। घरर, घरर, फरर, फरर से आसमान गूंजा दिया है। चिरैया-परेबा तक चैन से नहीं बैठ पा रहे अपने कोटर मंे डर के मारे । जिसके जहां सींग समाये वही दुबकर बैठा है।
अब तो अवसर आती है ये चीलगाड़ियाॅ। राजाघाट पर माथा टेकने आते हो जैसे अफसर। बेतवा स्नान को आते हों जैसे नेतागण। जब-जब आते है यें, उस दिन न तो ढोर-बछैरू चैन से चारा चर पाते है औरन दाना-पानी जुटा पाते है चिरैया-परेबा।पक्षी, जानवर सब भूखे रहतेहै उस दिन।वे बेजान, जो न किसी के लेने में न देने में । भगवान कादिया पेट,भगवान का दिया चारा-पानी।तब भी भूखे रहने को विवश ये मूक प्राणी।