अक्षय तृतीया भगवान परशुराम के जन्मदिन पर क्यों महत्वपूर्ण है लक्ष्मी पूजन


अक्षय तृतीया या आखा तीज वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है।  इसी कारण इसे अक्षय तृतीया कहा जाता है। वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है।
अक्षय तृतीया को ही नर-नारायण और परशुराम जी के अवतार हुए इसीलिए इस दिन इनका जनमोत्सव मनाया जाता है। भारतीय कालगणना के सि‍द्धांत से इसी दिन सतयुग की समाप्ति एवं त्रेता युग का आरंभ हुआ। इसीलिए इस तिथि को सर्वसिद्ध (अबूझ) तिथि के रूप में मान्यता मिली हुई है।
अक्षय तृतीया का भगवान परशुराम के अवतार से संबंध होने से यह पर्व राष्ट्रीय शासन व्यवस्था के लिए भी एक विशेष स्मरणीय एवं चिंतनीय पर्व है।
दस महाविद्याओं में भगवती पीतांबरा (बगलामुखी) के अनन्य साधक, भगवान शिव के परमप्रिय जामदग्नेय राम जिन्हें सर्वदा अमोघ परशु धारण करने के कारण संसार परशुरामजी के नाम से सम्बोधित करता है, उन्होंने अपनी शक्ति का प्रयोग सदैव कुशासन के विरुद्ध किया। निर्बल और असहाय समाज की रक्षा के लिए उनका कुठार अत्याचारी कुशासकों के लिए काल बन चुका था।


महिष्मती के शासक हैहयवंशी कार्तवीर्य के पुत्र सहस्त्रबाहु ने अपने आतिथ्य से अचंभित हो  परशुराम जी के पिता ऋषि जमदग्नि से उनकी कामधेनु गाय माँगी। जमदग्नि के इन्कार करने पर उसके सैनिक बलपूर्वक कामधेनु को अपने साथ ले गये। बाद में परशुराम जी को सारी घटना विदित हुई तो उन्होंने अकेले ही सहस्त्रबाहु की समस्त सेना का संहार कर दिया और साथ ही अत्याचारी सहस्त्रबाहु का भी वध किया।


अधर्मी कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रबाहु) की राजसत्ता को परशुरामजी ने छिन्न-भिन्न कर दिया। बाद में सहसबाहु के पुत्रों ने भगवान के पिता ऋषि जमदग्नि को आश्रम में अकेले पाकर छल से उनकी हत्या कर दी। अतः परशुराम जी ने उनके मूलोच्छेद के लिए 21 बार अभियान कर सभी पापियों का वध कर दिया।
आज लोग किसी भी जीत को प्रकट करने के लिए जिन दो उंगलियों को उठाकर विजय मुद्रा का प्रदर्शन करते हैं, वह परशुरामजी की विजय मुद्रा की नकल मात्र है। भगवान परशुराम की इस विजय मुद्रा के कई भाव हैं। इसका एक भाव है, जो शासक जीव और परमात्मा में अंतर समझते हैं, उनका मैंने मर्दन किया है।


दूसरा यह कि मनसुख और धर्मविमुख राजाओं को यह समझ लेना चाहिए कि या तो जनक की तरह निर्गुण निराकार ब्रह्म को जानने वाले तत्वज्ञानी राजा बनो या महाराजा दशरथ की तरह सगुण साकार ब्रह्म को स्वीकार करो। अवैदिक अमर्यादित राजा मेरे कुठार से बच नहीं सकते। इसीलिए उन्होंने तर्जनी और मध्यमा दो उंगलियों को प्रदर्शित कर अर्ध-पताका मुद्रा बनाई है। विशेष बात यह कि यह मुद्रा शत्रुओं / दुष्टों के संहार को परिलक्षित करती है, साथ ही सज्जनों/सुहृदों के लिए अभयदान को दर्शाती है। यह मुद्रा भरतनाट्यम में बहुलता में प्रयोग की जाती है।
अर्धपताका मुद्रा की साधना लोगों को विभिन्न  भय / शत्रुओं / उत्पातों / उपद्रवों  से भी मुक्त करती है। इस महामारी में भी उसका प्रयोग राम-बाण सिद्ध होगा।
विधि:
रात्रि को 10 से 12 के मध्य इस मुद्रा में सुखासन में बैठ जाइए व 30 तक की श्वासों की गिनती के साथ उस व्यक्ति या परिस्थिति का ध्यान करिये, जिससे आप भयातुर व चिंतित हैं, आप पाएंगे कि आप कष्टों से दूर हो रहे हैं।
भगवान परशुराम चिरंजीवी हैं। ये अपने साधकों−उपासकों तथा अधिकारी महापुरुषों को दर्शन देते हैं। इनकी साधना−उपासना से भक्तों पर लक्ष्मी जी की अक्षय कृपा प्राप्त होती है। वे आज भी मन्दराचल पर्वत पर तपस्यारत हैं। ऋषि संतान परशुराम ने अपनी प्रभुता व श्रेष्ठ वीरता की आर्य संस्कृति पर अमिट छाप छोड़ी। शैव दर्शन में उनका अद्भुत उल्लेख है, जो सभी शैव सम्प्रदाय के साधकों में स्तुत्य व परम स्मरणीय है।


वह किसी जाति के विरोधी नही थे अपितु अत्याचारियों के विरोधी है
भगवान परशुराम के बारे में प्रचलित है कि उन्होंने 21 बार भूमि को क्षत्रिय विहीन कर दिया था, लेकिन उनके रहते हुए भी जनक व रघु, आज, दशरथ जैसे क्षत्रिय राजा थे। उन्होंने दुष्ट दमन के लिए त्रेता में भगवान शिव से प्राप्त शारंग धनुष भगवान राम को दिया तथा द्वापर में भगवान विष्णु से प्राप्त बज्रनाभ चक्र सुदर्शन भगवान श्रीकृष्ण को प्रदान किया। वास्तव में परशुराम हर क्षत्रिय के विरोधी नहीं थे। उन्होंने अन्याय के पथ पर चलने वाले क्षत्रियों को ही सबक सिखाया और न्याय के पथ पर चलकर राज्य करने की सीख दी। उनके प्रमुख शिष्यों में भगवान कृष्ण के गुरु संदीपनी एवं द्रोणाचार्य के साथ ही क्षत्रिय भीष्म एवं सूतपुत्र कर्ण भी थे।


भगवान परशुराम का जन्म उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर के जलालाबाद में हुआ था। उनकी प्रारंभिक कर्मभूमि और तपोभूमि जौनपुर में गोमती के पावन तट पर जमैथा गांव में थी। यहां आज भी महर्षि जमदग्नि का आश्रम है। जौनपुर जनपद को पहले जमदग्निपुरम के नाम से ही जाना जाता था। 
यद्यपि भगवान के जन्म एवं कर्मक्षेत्र के बारे में अनेक मत हैं। 


25 अप्रैल को भगवान परशुरामजी के जन्मोत्सव को हम सभी दीपमालिका व रंगोली से सजाकार धूमधाम व हर्षोल्लास के साथ मनाए।
ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान ने अपने त्याग बल से लक्ष्मी को वश में कर रखा है और जो व्यक्ति इनकी आराधना करता है उसे लक्ष्मी जी की अहैतुकी कृपा प्राप्त होती है। इसीलिए प्राचीन काल से वैश्य समाज भगवान परशुराम जी का चित्र अपनी तिजोरी में रखते चले आ रहे हैं। जो साधक अक्षय तृतीया को विष्णु के अवतार परशुरामजी का पूजन करता है उस पर माता लक्ष्मी प्रसन्न हो अक्षय कृपा बरसाती है।
वास्तव में लक्ष्मी के आकांक्षी लोगों के लिए यही एकमात्र पर्व है जो आराधना के लिए उपयुक्त है, क्योंकि धन तेरस तो धन्वंतरि (जो कि स्वास्थ्य-धन के देवता हैं न कि वैभव के) एवं दीपोत्सव श्री राम के वन से पुनरागमन का पर्व है न कि लक्ष्मी पूजन का।
इसलिए भगवान की जयंती को लक्ष्मी पूजन दीपोत्सव के साथ मनाना चाहिए। वैसे भी अक्षय तृतीया के दिन जैसे किये गये प्रत्येक कार्य दान, पुण्य, जप, तप आदि अक्षय फल देते हैं ठीक उसी प्रकार इस दिवस का लक्ष्मी पूजन भी अक्षय फलदायी होता है जिसकी पूर्ति सोना-चांदी खरीदने से नही क्योंकि उसमें तो आप अपनी लक्ष्मी दुकानदार को देकर कम मूल्य की वस्तु लाते हैं, इसकी पूर्ति तो लक्ष्मी जी के पूजन से ही होगी। विवाह संस्कार के लिए भी इस दिन का महत्व इसलिए है, क्योंकि वधू भी परिवार के लिए लक्ष्मी ही होती है अतः इस दिन विवाहित होकर आने वाली कन्या घर की लक्ष्मी साबित होती है। ऐसी गृह लक्ष्मी के प्रति पूज्यता और सम्मान का भाव भी अपेक्षित है।
तो आइए हम सब भगवान विष्णु के चिंरंजीवी अवतार रेनुकानंदन राम भगवान परशुराम का जन्मदिवस लक्ष्मी पूजन के साथ दीपोत्सव के रूप में 25 अप्रैल 2020 को मनाएं


पूजन मंत्र : ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि तन्नो परशुराम: प्रचोदयात्।।



लेखक- वरिष्ठ पुलिस अधिकारी है।


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