मनोभावों को रंगों के माध्यम से व्यक्त करना ही कला -डा0 विजय माथुर

लखनऊः 01 फरवरी, 2020
उ0प्र0 राज्य संग्रहालय में आयोजित कला अभिरूचि पाठ्यक्रम के तेहरवें दिन आज राष्ट्रीय संग्रहालय, नई-दिल्ली के भूतपूर्व कीपर डा0 विजय माथुर द्वारा भारतीय लघु चित्रकला विषय पर अत्यंत ही सारगर्भित व्याख्यान दिया गया। विद्वान वक्ता द्वारा अपने व्याख्यान में सर्वप्रथम कला को परिभाषित करते हुए बताया गया कि मनोभावों को रंगों के माध्यम से व्यक्त करना ही कला है, कला भावों का संयोजन हैं। भारतीय कला में चित्रकला एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा प्राचीन काल की जीवन शैली का स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है।
अजन्ता की चित्रकला भित्ति चित्रकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। विद्वान वक्ता द्वारा बताया गया है कि भीमबेटका की गुफाओं में आदिमानवों के द्वारा अंकित प्रागैतिहासिक चित्रकला तथा बाघ की गुफाओं में अंकित चित्रों में प्रयोग किये गये रंग जो आज भी इन चित्रों को सजीव बनाये है। पूर्वकाल के चित्रों में कहीं भी कलाकार का नाम अंकित नहीं मिलता था, किन्तु मुगलकाल तक आते-आते चित्रकार का नाम मिलने लगा। प्रारम्भिक जैन पाण्डुलिपियाॅ ताड़ पत्र में प्राप्त होती हैं सर्वप्रथम जैन पाण्डुलिपियों में सुनहरें रंगों का प्रयोग किया जाता था। राजस्थान की चित्रकला के अन्तर्गत सर्वप्रथम मेवाड शैली में चित्र निर्माण प्रारम्भ हुआ। कोटा की चित्रकला का प्रमुख विषय शिकार होता था। विद्वान वक्ता द्वारा बूंदी, मेवाड़, किशनगढ़ के चित्रों में मछलीनुमा नयन, चमकीले रंगों, अंगुलियों का अत्यन्त ही पतला होना आदि मुख्य लक्षण बताये गये। इसके अतिरिक्त चित्रकला की विभिन्न शैलियों यथाः- बसौली, कागड़ा, कुल्लू तथा मंडी शैलियों पर भी चर्चा की। मुगल पेंटिंग शैली में पिस्ता रंग का प्रयोग प्रमुखता से मिलता है। विद्वान वक्ता द्वारा चित्रकला की शैलियों को पहचानने के संदर्भ में पावरप्वाइंट के माध्यम से राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, राज्य संग्रहालय लखनऊ डोगरा आर्ट गैलरी, जम्मू व राजस्थान के विभिन्न संग्रहालयों में संग्रहीत चित्रों को दिखाते हुये विशिष्ट विशेषताओं के साथ उनकों पहचानने के आधार को अत्यन्त ही सहजता के साथ व्याख्यायित किया।
इस क्रम में उन्होंने संग्रहालय द्वारा या आम जनमानस द्वारा प्राचीन चित्रों के क्रय के विषय में सर्तक रहने की बात कही तथा बताया कि वर्तमान में कई जाली चित्रों को बेचने वाले लोग उसमें विविध तरीकों का प्रयोग कर चित्रों को सजीवता प्रदान करने का प्रयास करते है। अतः इसके क्रय के समय बहुत ही सतर्कतापूर्वक बारीकियों को ध्यान में रखकर उसका क्रय किया जाना चाहिए जिसके लिए चित्रों के अध्ययन के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान की भी आवश्यकता होनी आवश्यक है।
कार्यक्रम का संचालन श्रीमती रेनू द्विवेदी सहायक निदेशक, पुरातत्व ने किया। कार्यक्रम के अन्त में डा0 आनन्द कुमार सिंह, निदेशक उ0प्र0 संग्रहालय निदेशालय ने भारतीय लघु चित्रकला विषय पर अत्यंत सजीवता के साथ विद्यार्थियों के मध्य दिये गये व्याख्यान के लिए विद्वान वक्ता को धन्यवाद ज्ञापन करने के साथ-साथ प्रतिभागियों तथा अतिथियों एवं पत्रकार बन्धुओं को धन्यवाद ज्ञापन किया।


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