----काव्य लोक----:एक पड़िता हिंदी भी है :
एक पीड़िता हिंदी भी है
जो सहन कर रही अपने दर्दों को बर्षो से
अस्तित्व के लिए गिड़गिड़ाती,
गुजारिश करती अपनों से
हिंदी... जिसका रूप आजकल दोहरा है।
अंग्रेजों के अतिक्रमण के चलते
लार्ड हिंगलिश का पहरा है ।
हिंदी अपने ही शिखंडी रूप में
निरंतर मृत्यु शैया को अग्रसर है।
अपनी सुरक्षा के लिए हिंदी
साहित्यकारों से भी कितनी उम्मीद करें?
वे मांगू और पूर्ति के चक्र में फसे है
अखबार अर्थ के संकट से धसे है।
बुद्धु बक्से ने भाषा को चबाया
स्वर और व्यंजन को खाया ।
वीर हिंदी की व्यथा सुने तो कौन
न्याय की मूर्ति आंखों में पट्टी बाधें मौन!
हिंदी का उद्धार हो तो कैसे
साक्षात्कार से दोस्ती की शुरुआत में
अंग्रेजी वक्ता को ही परमवीर माना जाता है।
अपनो के इस व्यवहार से
हिंदी आजकल लाचार है।
सोचने समझने की है भाषा
आज कल शादी के आमंत्रण पत्रों से ही गायब हो चली है ।
परिणय जैसे मधुर शब्द
अब प्रतिद्वंदी वेड्स को
निहारता है निराशा भरी आंखों से।
हिंदी अपनी सौतन ही हिंग्लिश से
अब छुटकारा चाहती है।
पर उम्मीद करें तो किस से?
-विकास त्रिवेदी