नागफांस में उलझी जिन्दगी
नागफांस में उलझी जिन्दगी के खेल के ताने-बाने को रोज-ब-रोज सुलझाने के लिए शहर-दर-शहर सड़के नापते पुलिस और दंबगों की दुत्कार शह कर अपने जीवन की पाठशाला से सीखे हुनर से हैरतअंगेज खेल दिखाकर दो वक्त की रोटी हासिल करने वाले नटों का अतीत कभी बहुत गौरवशाली भले ही रहा हो लेकिन वर्तमान स्याह अंधकार से घिरा है। नट परिवार में कोख से बाहर आने के बाद शिशुकी नई-नकोर आँखे रेल की पटरियों के बीच कोरी स्लेट पर नहीं आसमान में बांधी डोर पर चलने की इबारत लिखती है इसी इबारत के बल पर भूख को पराजित करती है लेकिन अब सर्कस के करतवों को मात देने वाली नटों की कलाबाजी फीकी पड़ती जा रही है। खेल विभाग, इनके ओर कोई ध्यान नही दे रहा हैं। पढ़ाई-लिखाई ज्यादा न होने के कारण अर्धसैनिक बलों व सेना मंे भी गुंजाइश नहीं बनती। बुन्देलखण्ड के बांदा जिले के बरछा, सढ़ा बदौसा, अतर्रा, नरैनी, बड़ोरवर कमासिन, तिंदवारी आदि गांव कस्बों में हजारों की तादाद में नट परिवार रहते हैं मध्य प्रदेश के छतरपुर, पन्ना, सतना जिले में भी इनकी तादाद हजारों में है। किंतु सदियों से कलाबाजी के करतब दिखाकर अपना और परिवार के करतब दिखाकर अपना और परिवार का पेट पालने वाले इन नट परिवारों को दरूण गाथा सुनने वाला कोई नहीं है मनोरंजन के क्षेत्र में आधुनिक क्रान्ति ने नट समाज के सामने संकटों का पहाड़ खड़ा कर दिया है। नटों ने रोजगार के नाम पर ग्रामीण क्षेत्रों में गाय भैसों की खरीद का रोजगार अपनाया था लेकिन धार्मिक कारणों से इस रोजगार ने उन्हें धन कम जेल की सजा ज्यादा दिलाई जिसके कारण नट पशु व्यापार छोड़ चुके है। नटों की पहचान इतिहास में राजाआंे के लिये किले फतह करने के लिये सेंधमारी करने वाले मिथकी चरित्र के रूप में होने के कारण इनके ऊपर सामाजिक रूप से प्रश्न चिन्ह लग जाने से लाख गुरवत करने के बावजूद भी दूर होने का नाम नही ले रहा है।
सढ़ा गांव के किरपाली नट ने बताया कि दो दशक पहले उसकी कलाबाजी देखने भीड़ टूट पड़ती थी। ढोलक और ढपली की थाप सुनते ही हजारों लोग दौड़ पड़ते थे और घेरा बनाकर बैठ जाते थे। दांतों तले उंगली दबा कर करतब देखते थे। दर्शकों की वाहवाही से कलाबाज नटों की छाती चैड़ी हो जाती थी। बड़ी तन्मयता से लोग कलाबाजी देखते थे। कलाबाज नट भी बड़ी तन्मयता से एक से बढ़कर एक हैरतअंगेज करतब दिखाते थे। एक पेड़ से दूसरे पेड़ की डाल पर रस्सी बांध कर सौ मीटर तक बिना किसी सहारे के चलना, बांस की ऊंचाई पर खड़े होकर पलटी मारना और हवा में चार-चार कलाबाजी लगाकर जमीन पर आना आदि ऐसे करतब हैं उन्हें देख कर लोग ठगे से रह जाते थे।
बरछा गांव के सलीम नट के कहा 'एक जमाना था, जब नटों की कलाबाजी के बगैर गांव-कस्बों के रईस परिवारों में शादी-ब्याह अधूरा माना जाता था। विवाह चाहे बेटी का हो या बेटे का। अगर दरवाजे विदाई के पहले गांव का नट करतब दिखाने न आए तो लोग अपनी हेटी मारते। कहा जाता था कि फलां जमींदार की शान में बट्टा लग गया। जिसके दरवाजे पर नट नहीं आया। करतब दिखाने पर वर पक्ष और वधू पक्ष से सैकड़ों रूपए इनाम में मिलते थे। यही नहीं, गांव में परपंरा थी कि गांव का संपन्न किसान साल मंे एक बार एक मन अनाज नटों को देते थे।
वक्त-वे-वक्त भी कस्बों और शहरों मंे नट करतब दिखाते थे। उपयुक्त स्थान पर बांस और रस्सी बांध कर नटों का खेल होता था। नटों की कलाबाजी से खुश होकर दर्शक इनाम देते थे। इतनी आमद हो जाती थी जिससे परिवार का पेट भरता था। सलीम ने कहा कि अब ढोल की थाप सुनकर लोग ठिठकते भी नही।
ज्यादातर नट परिवार मुस्लिम है। पारंपरिक कलाबाजी के खेलों की लगातार उपेक्षा से लोग खानदानी करतब करना भी भूल चुके है। सांप्रदायिकता की बढ़ती खाई के कारण भी इस कला को संरक्षण नहीं मिला।
खेती बाड़ी से हीन नट समुदाय के लोग गांव छोड़ कर डेरों में रहते है। कुछ तो भीख के लिए झोली फैलाती है। छोटे-छोटे बच्चे और महिलाएं पेट भरने के लिए भीख मांगती दिखती है।
आजादी के बाद किसी ने नट समुदाय के लोगों के लिए कोई ध्यान नहीं दिया। इनकी शिक्षा, स्वास्थ्य की चिंता नहीं की गई और न इनके पारंपारिक पेशे को संरक्षण दिया गया। भूख और बदहाली से इन्हें कभी निजात नहीं मिली।
नट समुदाय के लोग ज्यादातर लोग घास फूस की झोपड़ियों में रहते है। मकान उन्हीं परिवारों के पास है जिन्होंने अपना पारंपरिक पेशा छोड़कर अन्य कोई पेशा अपना लिया है।
पुराने रीति रिवाज को पकड़े नट समाज में लड़के, लड़कियों की शादी में भांवरे पड़ने के पहले जम कर लाठियां चलती है। जब तक दोनों पक्षों में जम कर लाठी न चले। खून न बहे। तब तक शादी की रस्म अधूरी मानी जाती है। इस रिवाज को ये लोग बुंदेली योद्धा आल्हा और ऊदल की परंपरा से जोड़ते है। इनका कहना है कि हमारे पूर्वज क्षत्रिय थे। उनका आल्हा ऊदल से ताल्लुक रहा। कालांतर में मुस्लिम धर्म स्वीकार करना पड़ा। इसके बावजूद हम अपना क्षत्रिय धर्म निभाते है।
नट समुदाय के लोग ठगी के मामले में महारत रखते है। नट समुदाय के कुछ लोग अपराध भी करते है। भोले-भाले लोगों को ये अपना अच्छेदार बातों में फंसाकर बड़ी आसानी से उसे ठगते है। इनकी इस आदत ने इनके विश्वास को तोड़ रखा है। लोग आसानी से इनकी बातों पर यकीन नहीं करते। नटों जिंदगी को परिवर्तन करने के लिये खेल मंत्रालय ने थोड़ी सी भी पहल की होती तो यह समुदाय अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कलाबाजियों से दुनिया भर को चकित कर देता लेकिन विकास का खाका तय करने वालों ने कभी देश की प्रतिभाआंे की परम्परा गत काबलियत ध्यान नही दिया और उनके ऊपर अपने राज्य के लिये कर्तव्य पालन के लिये किये गये कार्यो को इतिहास के पन्नों में अपराधियों के रूप में निरूपित करके ताजिन्दगी अभिसप्त जीवन जीने के लिये विवश कर दिया। पतली सी डोर पर चलकर जिन्दगी को साधने वाले नट समुदायें के रक्त में कला बाजियाँ कूट-कूट कर भरी है। अगर उन्हें थोड़ा सा आसरा मिल जाये तो वह अपने श्रेष्ठ प्रदर्शन से देश के लिये अनेक मेडल लाने में कामयाब हो सकते है। कवि अग्निवेद के शब्दों में- नटों की जिंदगी को समझना जादा आसान है।
नटों के लिए नहीं आया फरमान,
अधूरे रह गये बस सभी अरमान,
खेल प्रतिभा को नही मिली पहचान,
जिन्दगी ठोकर खाने को हलकान,
किलो की फतह के लिए सेंधमारी,
चस्पा ताजिन्दगी की बनी लाचारी,
पेचींदगी भरा कला बाजी का खेल,
सामंती सोच से नहीं खा पाया मेल,
जो नहीं थे खेल में कभी शामिल,
उन्हें सुविधा के लिए माना काबिल।।