लोकधन का उपयोग अपनी जागीर की तरह




पिछले दिनों फेसबुक पर बुत परस्ती के लिये एक मजेदार टिप्पणी दर्ज हुई, ''हिन्दू खड़े बुतों को मानते हैं, तो बरेलवी लेटे बुतों को'' बुत परस्ती के चक्कर में माया से मु... दूर हुये और इसका खामियाजा उन्हें अपनी सत्ता गवांकर उठाना पड़ा। वैसा देखा जाए तो बुतों की बात ही कुछ निराली है, वक्त बेवक्त यूपी के सियासी तकरार में बुत परस्ती एक बार फिर से चर्चा में है। बुतों को लेकर सलीम जावेद के फिल्मी डायलोग की भाषा में ''जंग का आगाज'' हो गया है। चुनाव आयोग के सबालिया निशान के बाद तो माया के हाथी ही नहीं अपितु माया की बुतो पर सबकी नजर लग गई है।14 मूर्तियां संगीत नाटक अकादमी परिसर में रखी मिली जो 3 करोड की है इन र्मूिर्तयों  को लाने बाले भूल गये थे।सवाल यह भी खडा हो गया है कि लोकधन का उपयोग अपनी जागीर की तरह 
अपनी स्मृति में किया जा सकता है?क्या लोकधन के प्रयोग हेतु बिधान सभा के पटल पर स्पष्ट  रुप से  मूर्तियां लगाने का उल्लेख
था?यदि नहीे तो कैसे लोकधन का प्रयोग अपने तथा अपने परिबार की र्मूिर्तयों में खर्च हो गया ?इस खर्च को नियमों की अनदेखी 
ंकर के जारी करने बाले जुम्मेदार अधिकारीयों के बिरुद्ध कोई कार्यवाही होगी? पार्क और स्मारको में प्रदेश में जन्में महापुरुषो की मूर्तियां
क्यों नहीं लगी? महापुरुषो की श्रेणी में मायाबती स्वंय अपने को तथा अपने परिजनो को कैसे महापुरुष सिद्ध कर सकती है?
व्ीआइपीवाद के भयंकर ज्वर से पीडित बसपा सुप्रीमो  के आचरण पर उगली उठाने पर बसपा महासचिब सतीश चन्द्र मिश्र की टिप्पणी
''क्या सारे नियम बसपा  पर ही लागू होगे?और भी मजेदार हैं।इस सवाल का जबाब  सपा के राष्टीय महासचिब बिश्म्भरप्रसाद निषाद
कहते है कि चुनाव से पहले ही पार्टी ने साफ कर दिया था कि सपा सरकार पार्क और स्मारको की जाच करायेगी इसीलिऐ सत्ता
सभालते ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादब ने लोकधन का उपयोग अपनी जागीर की तरह पत्थर में करने की जंाच कराने हेतु आयोगतक बनाने के संकेत दिये है।आयोग बनने के पूर्व कार्यदायी सस्था राजकीय निर्माण निगम के 450 से अधिक अधिकारीयो को नोएडा से लखनऊ लाया गया।इन पर आरोप है कि पत्थरों की किमत 400/-प्रति चै़-फुट है उन्हे रु 1200से 4000/- प्रति चै़-फुट के दर से क्यों खरीदा गया? स्मारको को निर्माण के बाद बार बार क्यो तोडा गया? र्मूिर्तयों को क्यों बार बार बदला गया?पर्याबरण की क्यो अनदेखी की गई? गोमती नदी के अन्दर निर्माण क्यों किया गया? स्मारको के निर्माण से जुडे कितनेलोग अरबपति बन गये?इन सबालो की पडताल को भले ही राजनैतिक बदला माना जाये लेकिन यह पडताल होगी और जाच में जो दोषी होगा चाहे कितना बडा व्यक्ति क्यो न हो उसके बिरुद्ध सख्त कार्यबाही होगी यह बात लोक निर्माण मंत्री शिबपालसिंह यादबने कह कर सरकार के इरादो सेरुबरु करा दिया है।बसपा के र्पूव राष्टीय प्रबक्ता सुधीर गोयल कहते है कि र्मूिर्तयों के निर्माण करने या न करने केसन्दर्भ मे कोई कानूनीप्रतिबन्ध नहीं हैं। बहुजन समाज पार्टीकी सरकार ने नियम बिरुद्ध कोई कार्य नहीं किया ह ैइसीलिऐ न्यायालय मे भी हमे न्याय मिला। 
गौरतलब है कि माया सरकार ने मूर्तियों के लिये 527 करोड़ और सूखे के लिये महज 250 करोड़ का प्रावधान किया था जो कि मायावती के असीम मूर्ति प्रेम को दर्शाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्यमंत्री को उनकी हेण्डबुक सहित उनके गुरू कांशीराम और बीआर अम्बेडकर की राज्यभर में चालीस मूर्तियों को स्थापित करने की भव्य योजना संबंधित नोटिस जारी किया था, एक अनुमान के मुताबिक मायावती ने मूर्तियां बनाने के लिए दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए थे। लाल पत्थर में तराशी गई यह बेशकीमती मूर्तियां यूपी के नोएडा और लखनऊ जैसे शहरों में लगी हैं। 
कांशीराम और मायावती की लगी हुई मूर्तियों की लागत एक अनुमान के अनुसार 665 करोड़ रुपए है। वहीं हाथियों की हर मूर्ति की कीमत सत्तर लाख से ज्यादा है। राज्य भर में हाथी के दर्जनों पुतले स्थापित किए गए, जो मायावती की पार्टी बसपा के चुनाव चिन्ह का प्रतीक हैं।   वर्ष 1995 में जब मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं तो स्मारक की नींव डाली थी, नींव पड़ने के साथ इस स्थल को डा. भीमराव अम्बेडकर उद्यान कहा गया। वर्ष 1997 में जब मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनीं तो इसे डा. भीमराव अम्बेडकर स्मारक के रूप में विकसित करने की प्रक्रिया शुरू हुई, जो वर्ष 2002-03 में उनके तीसरे कार्यकाल के दौरान भी जारी रही। इसी के साथ 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनते ही मायावती ने इस स्मारक का नये सिरे से जीर्णोद्घार किया। 
ः- कैसा है स्मारकः-
1370 करोड़ रुपये से निर्मित यह सामाजिक परिवर्तन स्थल बीते वर्ष अक्टूबर पूरी तरह से आम जनता के लिए खोल दिया गया। यह स्थल अपने भीतर कई अन्य स्मारकों को भी समाहित किये हुए है जिसमें कमल आकृति प्रस्तुत करता हुआ डा. भीमराव अम्बेडकर स्मारक। जिसका निर्माण 6.5 एकड़ के क्षेत्र किया गया है, जिसमें 4 भव्य चैत्य द्वार है। इसकी दीवारें गुलाबी रंग की मकराना संगमरमर से बनी हैं। भवन के मुख्य गुम्बद के नीचे स्मारक का भव्य हाल है, जिसमें अम्बेडकर के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए कांस्य के आकर्षण वित्ती चित्र बनाये गए हैं। यहां से सटे मुख्य वृक्ष में अम्बेडकर की बैठी हुई मुद्रा में भव्य कांस्य प्रतिमा स्थापित है, जो ठीक वैसी ही है, जैसा कि वाशिंगटन के लिंकन मेमोरियल में लगी अब्राहम लिंकन की मूर्ति। 
इस स्मारक से बाहर निकलते ही सामने गुम्बदाकार दो विशाल भवन का 2.5 एकड़ में फैला संग्रहालय बना है, इनमें से एक के अंदर सामाजिक परिवर्तन के प्रणेता ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, डा. भीमराव अम्बेडकर, कांशीराम और दूसरे भवन में गौतमबुद्घ, कबीरदास, रविदास, घासीदास, बिरसामुंडा की 18 फुट ऊंची मूर्तियां स्थापित की गयी हैं। गौरतलब है कि यहां पर हाथियों की 62 प्रतिमाएं लगी हंै। 
लोगों में सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र दोनों भवनों के अंदर बीच में कांसे के गुम्बद के नीचे बनी पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की चहुंमुखी मूर्ति है। इसी के साथ कांशीराम और मायावती की 18 फीट ऊंची कांस्य की मूर्तियां स्थापित हैं। भवन की दीवारों पर कांशीराम की छह विशालकाय कांस्य झांकियां हैं। इसी स्मारक के बगल में कांशीरामजी ग्रीन गार्डेन 112 एकड़ क्षेत्रफल में बना है। 1075 करोड़ रुपये की लागत से बने इस इको पार्क के लिए पीपल, साइकस, पर 52 फुट ऊंचे कांसे के दो फुव्वारे हैं। 
भीमराव अम्बेडकर गोमती बुद्घ विहार
700 मीटर लम्बाई में गोमती नदी के किनारे बने बांध के ऊपर 30 मीटर चैड़ा, रिवर फ्रंट बनाया गया है, जो 7.5 एकड़ में फैला है। इस विहार में गौतमबुद्घ की 18 फीट ऊंची चहुंमुखी संगमरमर की प्रतिमा स्थापित की गयी है। सामाजिक परिवर्तन स्थल के सामने ढलान पर कुल 12 छतरी निर्मित कर ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, डा. भीमराव अम्बेडकर, रमाबाई अम्बेडकर, गौतमबुद्घ, घासीदास, कबीरदास, संत रविदास बिरसा मुंडा, कांशीराम और मायावती की सात फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गयी है। 
समतामूलक चैक
गोमती नदी पर नवनिर्मित आठ लेन पुल, गोमती बैराज व सेतु पर यातायात के नियंत्रण के लिए समतामूलक चैक का निर्माण किया गया है। यहां पर छत्रपति शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले और नारायण गुरु की प्रतिमाएं स्थापित हैं। विशाल फुव्वारों से युक्त चैक का क्षेत्रफल 27,900 वर्ग मीटर है। 
सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल
गोमती तटबंध पर एक बड़े क्षेत्रफल में कर्टेन वॉल बनाकर सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल विकसित किया गया है। इसके एक ओर कांशीराम और मायावती की 14 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा है, तो दूसरी ओर भीमराव अम्बेडकर और उनकी पत्नी रमाबाई अम्बेडकर की मूर्तियां लगायी गयी हैं। निर्माण के वक्त इन सभी प्रतिमाओं कों सैंड स्टोन से तीन ओर से घेरा गया था और इसके ऊपर नक्काशीदार छतरी लगायी गयी थी। 
अम्बेडकर गोमती विहार व पार्क
 गोमती नदी के आसपास में क्षेत्र के सुन्दरीकरण के लिए तटबंध के एक ओर करीब 90 एकड़ क्षेत्रफल को चार भागों में बांटकर अम्बेडकर गोमती विहार बनाया गया है। साथ ही 22 एकड़ जमीन पर अम्बेडकर गोमती पार्क बनाया गया है, जहां लगा म्यूजिकल फाउंटेन यहां आने वाले लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचता है। 
ढंका हाथी खाक साबित हुआ 
हाथियों की बात की जाए तो, खुला हाथी अगर लाख का था, तो वहीं ढंका हाथी खाक साबित हुआ। देखा जाए तो मायावती और पार्टी के प्रतीक चिन्ह की मूर्ति लगवाना संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन है। लखनऊ और नोएडा में बनाए गए स्मारकों व पार्कों के मामले में घिरी मायावती मुस्लिम मतों के सपा की झोली में चले जाने का सीधा आरोप मढ़कर अपनी साख बचाने की कबायद कर चुकी है। वे कई मामलों में सपा सरकार को मुश्किलों में डालने की तैयारी कर रही हैं। बड़े सियासी दांव के तहत लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को तगड़ा झटका लगे तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। दलित और दलितोतर जातियों के बीच यह सन्देश देने की कवायद है कि बसपा सुप्रीमो किसी से भी टकरा सकती हैं। लम्बे वक्त तक शोषण का शिकार रही जातियों को आत्मबल देने की यह कोशिश कितना रंग लाती है, यह तो अब वक्त ही बतायेगा। मायावती व्यक्ति पूजा के साथ-साथ स्वपूजा में कितना अधिक विश्वास रखती हैं, निःसंदेह इसके प्रमाण भी हैं। कांशीराम की मूर्तियों सहित पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की कई मूर्तियां लगवाने  2008-09 व 2009-10 के राज्य बजट से करीब दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के बजट का 90 प्रतिशत मायावती ने इन मूर्तियों के लगवाने पर खर्च किया, इसमें 2 हजार करोड़ रुपए अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल के निर्माण पर, 370 करोड़ रुपए कांशीराम स्मारक, 90 करोड़ कांशीराम सांस्कृतिक स्थल पर इसी तरह 90 करोड़ रुपए बुद्ध स्थल और 65 करोड़ रमाबाई अंबेडकर मैदान पर लुटा दिये। स्पष्ट है, मायावती ने सत्ता में आने के साथ ही पार्क, स्मारक और मूर्तियों पर चालीस हजार करोड़ रुपए खर्च कर दिए। लखनऊ को पत्थरों का शहर बना दिया गया, जिससे जनता का धन बर्बाद हो गया। इस राशि को यदि जनता के हितों में लगाया जाता तो राज्य का काफी विकास हो जाता।  
मायावती की बहुजन समाज पार्टी भारत की सबसे अमीर पार्टियों में से एक है। घोषित पार्टी फंड छोड़ दिया जाए तो खुद बसपा के जिम्मेदार लोग मानते हैं कि अगला लोकसभा चुनाव पूरे देश में लड़ने के लिए एक विराट कोष बनाया है। शशि भाई भोजपुरी तो यहां तक कह चुकें हैं कि बहिन जी के तनिक भी सोचे के चाही कि दलित दलित करेनी बाकी ई जेतना पैसा मूर्ति बनवाला मे खर्चा करत बानी पैसा के खर्चा कइला क मतलब का बा???  केतना फायदा बा ???? जे संम्माननीय रहल आ बा उनके त पूरा देश याद करते बा आ करते रही, मूर्ति लगा के उ ई काहे देखावल चाहत बानी कि इहे सरकार राज बा.....
दूसरी तरफ चुनाव विश्लेषक नीतिश कुमार का कहना था कि मायावती की सोच को बहुत कम लोग समझ पाये। मुझे तो शक है कि मायावती खुद अपने मूर्ति प्रेम का समझ पायी या नहीं?
अखिलेश यादब तो मायावती की मूर्ति और उनके पर्स पर कटाक्ष अब भी कर रहेे हैं। पिछले दिनो एक कार्यक्रम मेंकहा था कि जिस कंपनी का पर्स वह लेकर चलती हैं उसकी कीमत 15 लाख रुपये से शुरू होती है। उन्होंने मजाकिया अंदाज में यह भी कह डाला कि आप भरोसा रखिए मैं अपनी मूर्ति नहीं बनवाऊंगा क्योंकि भारतीय संस्कृति के अनुसार जिंदा लोगों की मूर्ति नहीं बनती। 
दलितों के आत्मसम्मान के मायावती के तर्क और अरबों के आत्मसम्मान के सद्दाम के नारे में फर्क दिखना बंद सा हो गया है। ज्यादातर मामलों में सद्दाम और मायावती की तुलना नहीं हो सकती, लेकिन जीतेजी अपनी मूर्तियां बनवाने का शौक दोनों में एक जैसा दिखता है। अपनी मूर्तियां लगवाने की गहरी ललक के पीछे कहीं एक गहरा अविश्वास है कि इतिहास के गर्त में जाने के बाद शायद लोग याद न रखें। मगर शख्सियतों का आकलन, इतिहास अपने निर्मम तरीके से करता है और उसमें मूर्तियां नहीं गिनी जातीं।
सोवियत संघ के विघटन के बाद, क्रेमलिन में धड़ से टूटकर गिरा हुआ लेनिन की मूर्ति का सिर हो या फिरदौस चैक पर जंजीरों से खींचकर गिराई गई सद्दाम की मूर्ति। ये इतना तो जरूर बताती हैं कि उनके जरिए बहुत लंबे समय तक लोगों के दिलों पर राज नहीं किया जा सकता। 
लगातार उठती रहीं अंगुलियां
दलित महापुरुषों की याद में बनाये गये स्मारकों में अनेक कमियां भी हैं। भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में डा. भीमराव अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल और कांशीराम स्मारक स्थल को विकसित करने की आपत्तियां हैं। दोनों ही स्थलों का काम उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम को दिया गया था। दिसंबर 2009 तक दोनों कार्यों पर 1776.57 करोड़ रुपये खर्च हो गए थे। रिपोर्ट के मुताबिक चुनार (मिजार्पुर) से पत्थर लेकर उसे नक्काशी के लिए 670 किलोमीटर दूर बयाना (राजस्थान) भेजा गया। यहां से पत्थरों को 450 किलोमीटर दूर लखनऊ लाया गया। इससे पत्थरों की ढुलाई में ही करोड़ों रुपये खर्च कर दिये गए। सीएजी का मानना है कि यदि चुनार में ही पत्थर कांटने वाले को नियुक्त कर नक्काशी करायी जाती तो लागत को 15.60 करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता था। अगस्त, 2010 में विधानसभा के अंदर रखी गयी रिपोर्ट में भी सीएजी ने स्मारक स्थल के विस्तार के लिए एक स्टेडियम को गिराने का एतराज किया था।
कैग ने इस तथ्य को गंभीरता से लिया था कि गिराये गए स्टेडियम और उससे सटे संग्रहालय की इमारत बमुश्किल दस साल पुरानी थी। यही नहीं चार अक्टूबर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने मायावती सरकार को आदेशों की अवहेलना करते हुए लखनऊ में स्मारकों का निर्माण कार्य जारी रखने पर कड़ी फटकार लगायी थी। 
सुप्रीम कोर्ट ने मायावती सरकार से तल्ख लहजे में यह भी कहा था कि न्यायालय से राजनीति का खेल मत खेलिए जैसा कि आप विधानसभा में अन्य राजनीतिक दलों के साथ खेलते हैं। अधिकारियों के मुताबिक यहां पर एक विशाल होटल बनाने की योजना थी, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल होने के बाद एलडीए ने दुबारा इस भूमि का उपयोग बदलकर हरित पट्टी कर दिया और यहां पर पार्क बनाने का निर्णय लिया गया। अखिलेश यादबकी काट के लिये तरह-तरह के विकल्प खोज रही मायावती के सामने संकटों का पहाड़ टूटता नजर आ रहा है। जिस दलित वर्ग के दम पर बड़ो-बड़ों से लोहा लेने वाली माया से लोहा लेता अखिलेश यादब का अनूॅठा अन्दाज दलित वर्ग को सिर्फ लुभा ही नही रहा है बल्कि उसे उनके साथ कदम दर कदम चलने को मजबूर कर रहा है। बसपा सुप्रीमों हार मानने वाली नही है उन्होंने राजनीति को पटरी पर लाने के लिऐ दलित वर्ग सहारा लिया है।पिछले दिनों फेसबुक पर बुत परस्ती के लिये एक मजेदार टिप्पणी दर्ज हुई, ''हिन्दू खड़े बुतों को मानते हैं, तो बरेलवी लेटे बुतों को'' बुत परस्ती के चक्कर में माया से मु... दूर हुये और इसका खामियाजा उन्हें अपनी सत्ता गवांकर उठाना पड़ा। वैसा देखा जाए तो बुतों की बात ही कुछ निराली है, वक्त बेवक्त यूपी के सियासी तकरार में बुत परस्ती एक बार फिर से चर्चा में है। बुतों को लेकर सलीम जावेद के फिल्मी डायलोग की भाषा में ''जंग का आगाज'' हो गया है। चुनाव आयोग के सबालिया निशान के बाद तो माया के हाथी ही नहीं अपितु माया की बुतो पर सबकी नजर लग गई है।14 मूर्तियां संगीत नाटक अकादमी परिसर में रखी मिली जो 3 करोड की है इन र्मूिर्तयों  को लाने बाले भूल गये थे।सवाल यह भी खडा हो गया है कि लोकधन का उपयोग अपनी जागीर की तरह 
अपनी स्मृति में किया जा सकता है?क्या लोकधन के प्रयोग हेतु बिधान सभा के पटल पर स्पष्ट  रुप से  मूर्तियां लगाने का उल्लेख
था?यदि नहीे तो कैसे लोकधन का प्रयोग अपने तथा अपने परिबार की र्मूिर्तयों में खर्च हो गया ?इस खर्च को नियमों की अनदेखी 
ंकर के जारी करने बाले जुम्मेदार अधिकारीयों के बिरुद्ध कोई कार्यवाही होगी? पार्क और स्मारको में प्रदेश में जन्में महापुरुषो की मूर्तियां
क्यों नहीं लगी? महापुरुषो की श्रेणी में मायाबती स्वंय अपने को तथा अपने परिजनो को कैसे महापुरुष सिद्ध कर सकती है?
व्ीआइपीवाद के भयंकर ज्वर से पीडित बसपा सुप्रीमो  के आचरण पर उगली उठाने पर बसपा महासचिब सतीश चन्द्र मिश्र की टिप्पणी
''क्या सारे नियम बसपा  पर ही लागू होगे?और भी मजेदार हैं।इस सवाल का जबाब  सपा के राष्टीय महासचिब बिश्म्भरप्रसाद निषाद
कहते है कि चुनाव से पहले ही पार्टी ने साफ कर दिया था कि सपा सरकार पार्क और स्मारको की जाच करायेगी इसीलिऐ सत्ता
सभालते ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादब ने लोकधन का उपयोग अपनी जागीर की तरह पत्थर में करने की जंाच कराने हेतु आयोगतक बनाने के संकेत दिये है।आयोग बनने के पूर्व कार्यदायी सस्था राजकीय निर्माण निगम के 450 से अधिक अधिकारीयो को नोएडा से लखनऊ लाया गया।इन पर आरोप है कि पत्थरों की किमत 400/-प्रति चै़-फुट है उन्हे रु 1200से 4000/- प्रति चै़-फुट के दर से क्यों खरीदा गया? स्मारको को निर्माण के बाद बार बार क्यो तोडा गया? र्मूिर्तयों को क्यों बार बार बदला गया?पर्याबरण की क्यो अनदेखी की गई? गोमती नदी के अन्दर निर्माण क्यों किया गया? स्मारको के निर्माण से जुडे कितनेलोग अरबपति बन गये?इन सबालो की पडताल को भले ही राजनैतिक बदला माना जाये लेकिन यह पडताल होगी और जाच में जो दोषी होगा चाहे कितना बडा व्यक्ति क्यो न हो उसके बिरुद्ध सख्त कार्यबाही होगी यह बात लोक निर्माण मंत्री शिबपालसिंह यादबने कह कर सरकार के इरादो सेरुबरु करा दिया है।बसपा के र्पूव राष्टीय प्रबक्ता सुधीर गोयल कहते है कि र्मूिर्तयों के निर्माण करने या न करने केसन्दर्भ मे कोई कानूनीप्रतिबन्ध नहीं हैं। बहुजन समाज पार्टीकी सरकार ने नियम बिरुद्ध कोई कार्य नहीं किया ह ैइसीलिऐ न्यायालय मे भी हमे न्याय मिला। 
गौरतलब है कि माया सरकार ने मूर्तियों के लिये 527 करोड़ और सूखे के लिये महज 250 करोड़ का प्रावधान किया था जो कि मायावती के असीम मूर्ति प्रेम को दर्शाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्यमंत्री को उनकी हेण्डबुक सहित उनके गुरू कांशीराम और बीआर अम्बेडकर की राज्यभर में चालीस मूर्तियों को स्थापित करने की भव्य योजना संबंधित नोटिस जारी किया था, एक अनुमान के मुताबिक मायावती ने मूर्तियां बनाने के लिए दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए थे। लाल पत्थर में तराशी गई यह बेशकीमती मूर्तियां यूपी के नोएडा और लखनऊ जैसे शहरों में लगी हैं। 
कांशीराम और मायावती की लगी हुई मूर्तियों की लागत एक अनुमान के अनुसार 665 करोड़ रुपए है। वहीं हाथियों की हर मूर्ति की कीमत सत्तर लाख से ज्यादा है। राज्य भर में हाथी के दर्जनों पुतले स्थापित किए गए, जो मायावती की पार्टी बसपा के चुनाव चिन्ह का प्रतीक हैं।   वर्ष 1995 में जब मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं तो स्मारक की नींव डाली थी, नींव पड़ने के साथ इस स्थल को डा. भीमराव अम्बेडकर उद्यान कहा गया। वर्ष 1997 में जब मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनीं तो इसे डा. भीमराव अम्बेडकर स्मारक के रूप में विकसित करने की प्रक्रिया शुरू हुई, जो वर्ष 2002-03 में उनके तीसरे कार्यकाल के दौरान भी जारी रही। इसी के साथ 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनते ही मायावती ने इस स्मारक का नये सिरे से जीर्णोद्घार किया। 
ः- कैसा है स्मारकः-
1370 करोड़ रुपये से निर्मित यह सामाजिक परिवर्तन स्थल बीते वर्ष अक्टूबर पूरी तरह से आम जनता के लिए खोल दिया गया। यह स्थल अपने भीतर कई अन्य स्मारकों को भी समाहित किये हुए है जिसमें कमल आकृति प्रस्तुत करता हुआ डा. भीमराव अम्बेडकर स्मारक। जिसका निर्माण 6.5 एकड़ के क्षेत्र किया गया है, जिसमें 4 भव्य चैत्य द्वार है। इसकी दीवारें गुलाबी रंग की मकराना संगमरमर से बनी हैं। भवन के मुख्य गुम्बद के नीचे स्मारक का भव्य हाल है, जिसमें अम्बेडकर के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए कांस्य के आकर्षण वित्ती चित्र बनाये गए हैं। यहां से सटे मुख्य वृक्ष में अम्बेडकर की बैठी हुई मुद्रा में भव्य कांस्य प्रतिमा स्थापित है, जो ठीक वैसी ही है, जैसा कि वाशिंगटन के लिंकन मेमोरियल में लगी अब्राहम लिंकन की मूर्ति। 
इस स्मारक से बाहर निकलते ही सामने गुम्बदाकार दो विशाल भवन का 2.5 एकड़ में फैला संग्रहालय बना है, इनमें से एक के अंदर सामाजिक परिवर्तन के प्रणेता ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, डा. भीमराव अम्बेडकर, कांशीराम और दूसरे भवन में गौतमबुद्घ, कबीरदास, रविदास, घासीदास, बिरसामुंडा की 18 फुट ऊंची मूर्तियां स्थापित की गयी हैं। गौरतलब है कि यहां पर हाथियों की 62 प्रतिमाएं लगी हंै। 
लोगों में सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र दोनों भवनों के अंदर बीच में कांसे के गुम्बद के नीचे बनी पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की चहुंमुखी मूर्ति है। इसी के साथ कांशीराम और मायावती की 18 फीट ऊंची कांस्य की मूर्तियां स्थापित हैं। भवन की दीवारों पर कांशीराम की छह विशालकाय कांस्य झांकियां हैं। इसी स्मारक के बगल में कांशीरामजी ग्रीन गार्डेन 112 एकड़ क्षेत्रफल में बना है। 1075 करोड़ रुपये की लागत से बने इस इको पार्क के लिए पीपल, साइकस, पर 52 फुट ऊंचे कांसे के दो फुव्वारे हैं। 
भीमराव अम्बेडकर गोमती बुद्घ विहार
700 मीटर लम्बाई में गोमती नदी के किनारे बने बांध के ऊपर 30 मीटर चैड़ा, रिवर फ्रंट बनाया गया है, जो 7.5 एकड़ में फैला है। इस विहार में गौतमबुद्घ की 18 फीट ऊंची चहुंमुखी संगमरमर की प्रतिमा स्थापित की गयी है। सामाजिक परिवर्तन स्थल के सामने ढलान पर कुल 12 छतरी निर्मित कर ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, डा. भीमराव अम्बेडकर, रमाबाई अम्बेडकर, गौतमबुद्घ, घासीदास, कबीरदास, संत रविदास बिरसा मुंडा, कांशीराम और मायावती की सात फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गयी है। 
समतामूलक चैक
गोमती नदी पर नवनिर्मित आठ लेन पुल, गोमती बैराज व सेतु पर यातायात के नियंत्रण के लिए समतामूलक चैक का निर्माण किया गया है। यहां पर छत्रपति शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले और नारायण गुरु की प्रतिमाएं स्थापित हैं। विशाल फुव्वारों से युक्त चैक का क्षेत्रफल 27,900 वर्ग मीटर है। 
सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल
गोमती तटबंध पर एक बड़े क्षेत्रफल में कर्टेन वॉल बनाकर सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल विकसित किया गया है। इसके एक ओर कांशीराम और मायावती की 14 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा है, तो दूसरी ओर भीमराव अम्बेडकर और उनकी पत्नी रमाबाई अम्बेडकर की मूर्तियां लगायी गयी हैं। निर्माण के वक्त इन सभी प्रतिमाओं कों सैंड स्टोन से तीन ओर से घेरा गया था और इसके ऊपर नक्काशीदार छतरी लगायी गयी थी। 
अम्बेडकर गोमती विहार व पार्क
 गोमती नदी के आसपास में क्षेत्र के सुन्दरीकरण के लिए तटबंध के एक ओर करीब 90 एकड़ क्षेत्रफल को चार भागों में बांटकर अम्बेडकर गोमती विहार बनाया गया है। साथ ही 22 एकड़ जमीन पर अम्बेडकर गोमती पार्क बनाया गया है, जहां लगा म्यूजिकल फाउंटेन यहां आने वाले लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचता है। 
ढंका हाथी खाक साबित हुआ 
हाथियों की बात की जाए तो, खुला हाथी अगर लाख का था, तो वहीं ढंका हाथी खाक साबित हुआ। देखा जाए तो मायावती और पार्टी के प्रतीक चिन्ह की मूर्ति लगवाना संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन है। लखनऊ और नोएडा में बनाए गए स्मारकों व पार्कों के मामले में घिरी मायावती मुस्लिम मतों के सपा की झोली में चले जाने का सीधा आरोप मढ़कर अपनी साख बचाने की कबायद कर चुकी है। वे कई मामलों में सपा सरकार को मुश्किलों में डालने की तैयारी कर रही हैं। बड़े सियासी दांव के तहत लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को तगड़ा झटका लगे तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। दलित और दलितोतर जातियों के बीच यह सन्देश देने की कवायद है कि बसपा सुप्रीमो किसी से भी टकरा सकती हैं। लम्बे वक्त तक शोषण का शिकार रही जातियों को आत्मबल देने की यह कोशिश कितना रंग लाती है, यह तो अब वक्त ही बतायेगा। मायावती व्यक्ति पूजा के साथ-साथ स्वपूजा में कितना अधिक विश्वास रखती हैं, निःसंदेह इसके प्रमाण भी हैं। कांशीराम की मूर्तियों सहित पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की कई मूर्तियां लगवाने  2008-09 व 2009-10 के राज्य बजट से करीब दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के बजट का 90 प्रतिशत मायावती ने इन मूर्तियों के लगवाने पर खर्च किया, इसमें 2 हजार करोड़ रुपए अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल के निर्माण पर, 370 करोड़ रुपए कांशीराम स्मारक, 90 करोड़ कांशीराम सांस्कृतिक स्थल पर इसी तरह 90 करोड़ रुपए बुद्ध स्थल और 65 करोड़ रमाबाई अंबेडकर मैदान पर लुटा दिये। स्पष्ट है, मायावती ने सत्ता में आने के साथ ही पार्क, स्मारक और मूर्तियों पर चालीस हजार करोड़ रुपए खर्च कर दिए। लखनऊ को पत्थरों का शहर बना दिया गया, जिससे जनता का धन बर्बाद हो गया। इस राशि को यदि जनता के हितों में लगाया जाता तो राज्य का काफी विकास हो जाता।  
मायावती की बहुजन समाज पार्टी भारत की सबसे अमीर पार्टियों में से एक है। घोषित पार्टी फंड छोड़ दिया जाए तो खुद बसपा के जिम्मेदार लोग मानते हैं कि अगला लोकसभा चुनाव पूरे देश में लड़ने के लिए एक विराट कोष बनाया है। शशि भाई भोजपुरी तो यहां तक कह चुकें हैं कि बहिन जी के तनिक भी सोचे के चाही कि दलित दलित करेनी बाकी ई जेतना पैसा मूर्ति बनवाला मे खर्चा करत बानी पैसा के खर्चा कइला क मतलब का बा???  केतना फायदा बा ???? जे संम्माननीय रहल आ बा उनके त पूरा देश याद करते बा आ करते रही, मूर्ति लगा के उ ई काहे देखावल चाहत बानी कि इहे सरकार राज बा.....
दूसरी तरफ चुनाव विश्लेषक नीतिश कुमार का कहना था कि मायावती की सोच को बहुत कम लोग समझ पाये। मुझे तो शक है कि मायावती खुद अपने मूर्ति प्रेम का समझ पायी या नहीं?
अखिलेश यादब तो मायावती की मूर्ति और उनके पर्स पर कटाक्ष अब भी कर रहेे हैं। पिछले दिनो एक कार्यक्रम मेंकहा था कि जिस कंपनी का पर्स वह लेकर चलती हैं उसकी कीमत 15 लाख रुपये से शुरू होती है। उन्होंने मजाकिया अंदाज में यह भी कह डाला कि आप भरोसा रखिए मैं अपनी मूर्ति नहीं बनवाऊंगा क्योंकि भारतीय संस्कृति के अनुसार जिंदा लोगों की मूर्ति नहीं बनती। 
दलितों के आत्मसम्मान के मायावती के तर्क और अरबों के आत्मसम्मान के सद्दाम के नारे में फर्क दिखना बंद सा हो गया है। ज्यादातर मामलों में सद्दाम और मायावती की तुलना नहीं हो सकती, लेकिन जीतेजी अपनी मूर्तियां बनवाने का शौक दोनों में एक जैसा दिखता है। अपनी मूर्तियां लगवाने की गहरी ललक के पीछे कहीं एक गहरा अविश्वास है कि इतिहास के गर्त में जाने के बाद शायद लोग याद न रखें। मगर शख्सियतों का आकलन, इतिहास अपने निर्मम तरीके से करता है और उसमें मूर्तियां नहीं गिनी जातीं।
सोवियत संघ के विघटन के बाद, क्रेमलिन में धड़ से टूटकर गिरा हुआ लेनिन की मूर्ति का सिर हो या फिरदौस चैक पर जंजीरों से खींचकर गिराई गई सद्दाम की मूर्ति। ये इतना तो जरूर बताती हैं कि उनके जरिए बहुत लंबे समय तक लोगों के दिलों पर राज नहीं किया जा सकता। 
लगातार उठती रहीं अंगुलियां
दलित महापुरुषों की याद में बनाये गये स्मारकों में अनेक कमियां भी हैं। भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में डा. भीमराव अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल और कांशीराम स्मारक स्थल को विकसित करने की आपत्तियां हैं। दोनों ही स्थलों का काम उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम को दिया गया था। दिसंबर 2009 तक दोनों कार्यों पर 1776.57 करोड़ रुपये खर्च हो गए थे। रिपोर्ट के मुताबिक चुनार (मिजार्पुर) से पत्थर लेकर उसे नक्काशी के लिए 670 किलोमीटर दूर बयाना (राजस्थान) भेजा गया। यहां से पत्थरों को 450 किलोमीटर दूर लखनऊ लाया गया। इससे पत्थरों की ढुलाई में ही करोड़ों रुपये खर्च कर दिये गए। सीएजी का मानना है कि यदि चुनार में ही पत्थर कांटने वाले को नियुक्त कर नक्काशी करायी जाती तो लागत को 15.60 करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता था। अगस्त, 2010 में विधानसभा के अंदर रखी गयी रिपोर्ट में भी सीएजी ने स्मारक स्थल के विस्तार के लिए एक स्टेडियम को गिराने का एतराज किया था।
कैग ने इस तथ्य को गंभीरता से लिया था कि गिराये गए स्टेडियम और उससे सटे संग्रहालय की इमारत बमुश्किल दस साल पुरानी थी। यही नहीं चार अक्टूबर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने मायावती सरकार को आदेशों की अवहेलना करते हुए लखनऊ में स्मारकों का निर्माण कार्य जारी रखने पर कड़ी फटकार लगायी थी। 
सुप्रीम कोर्ट ने मायावती सरकार से तल्ख लहजे में यह भी कहा था कि न्यायालय से राजनीति का खेल मत खेलिए जैसा कि आप विधानसभा में अन्य राजनीतिक दलों के साथ खेलते हैं। अधिकारियों के मुताबिक यहां पर एक विशाल होटल बनाने की योजना थी, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल होने के बाद एलडीए ने दुबारा इस भूमि का उपयोग बदलकर हरित पट्टी कर दिया और यहां पर पार्क बनाने का निर्णय लिया गया। अखिलेश यादबकी काट के लिये तरह-तरह के विकल्प खोज रही मायावती के सामने संकटों का पहाड़ टूटता नजर आ रहा है। जिस दलित वर्ग के दम पर बड़ो-बड़ों से लोहा लेने वाली माया से लोहा लेता अखिलेश यादब का अनूॅठा अन्दाज दलित वर्ग को सिर्फ लुभा ही नही रहा है बल्कि उसे उनके साथ कदम दर कदम चलने को मजबूर कर रहा है। बसपा सुप्रीमों हार मानने वाली नही है उन्होंने राजनीति को पटरी पर लाने के लिऐ दलित वर्ग सहारा लिया है।पिछले दिनों फेसबुक पर बुत परस्ती के लिये एक मजेदार टिप्पणी दर्ज हुई, ''हिन्दू खड़े बुतों को मानते हैं, तो बरेलवी लेटे बुतों को'' बुत परस्ती के चक्कर में माया से मु... दूर हुये और इसका खामियाजा उन्हें अपनी सत्ता गवांकर उठाना पड़ा। वैसा देखा जाए तो बुतों की बात ही कुछ निराली है, वक्त बेवक्त यूपी के सियासी तकरार में बुत परस्ती एक बार फिर से चर्चा में है। बुतों को लेकर सलीम जावेद के फिल्मी डायलोग की भाषा में ''जंग का आगाज'' हो गया है। चुनाव आयोग के सबालिया निशान के बाद तो माया के हाथी ही नहीं अपितु माया की बुतो पर सबकी नजर लग गई है।14 मूर्तियां संगीत नाटक अकादमी परिसर में रखी मिली जो 3 करोड की है इन र्मूिर्तयों  को लाने बाले भूल गये थे।सवाल यह भी खडा हो गया है कि लोकधन का उपयोग अपनी जागीर की तरह 
अपनी स्मृति में किया जा सकता है?क्या लोकधन के प्रयोग हेतु बिधान सभा के पटल पर स्पष्ट  रुप से  मूर्तियां लगाने का उल्लेख
था?यदि नहीे तो कैसे लोकधन का प्रयोग अपने तथा अपने परिबार की र्मूिर्तयों में खर्च हो गया ?इस खर्च को नियमों की अनदेखी 
ंकर के जारी करने बाले जुम्मेदार अधिकारीयों के बिरुद्ध कोई कार्यवाही होगी? पार्क और स्मारको में प्रदेश में जन्में महापुरुषो की मूर्तियां
क्यों नहीं लगी? महापुरुषो की श्रेणी में मायाबती स्वंय अपने को तथा अपने परिजनो को कैसे महापुरुष सिद्ध कर सकती है?
व्ीआइपीवाद के भयंकर ज्वर से पीडित बसपा सुप्रीमो  के आचरण पर उगली उठाने पर बसपा महासचिब सतीश चन्द्र मिश्र की टिप्पणी
''क्या सारे नियम बसपा  पर ही लागू होगे?और भी मजेदार हैं।इस सवाल का जबाब  सपा के राष्टीय महासचिब बिश्म्भरप्रसाद निषाद
कहते है कि चुनाव से पहले ही पार्टी ने साफ कर दिया था कि सपा सरकार पार्क और स्मारको की जाच करायेगी इसीलिऐ सत्ता
सभालते ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादब ने लोकधन का उपयोग अपनी जागीर की तरह पत्थर में करने की जंाच कराने हेतु आयोगतक बनाने के संकेत दिये है।आयोग बनने के पूर्व कार्यदायी सस्था राजकीय निर्माण निगम के 450 से अधिक अधिकारीयो को नोएडा से लखनऊ लाया गया।इन पर आरोप है कि पत्थरों की किमत 400/-प्रति चै़-फुट है उन्हे रु 1200से 4000/- प्रति चै़-फुट के दर से क्यों खरीदा गया? स्मारको को निर्माण के बाद बार बार क्यो तोडा गया? र्मूिर्तयों को क्यों बार बार बदला गया?पर्याबरण की क्यो अनदेखी की गई? गोमती नदी के अन्दर निर्माण क्यों किया गया? स्मारको के निर्माण से जुडे कितनेलोग अरबपति बन गये?इन सबालो की पडताल को भले ही राजनैतिक बदला माना जाये लेकिन यह पडताल होगी और जाच में जो दोषी होगा चाहे कितना बडा व्यक्ति क्यो न हो उसके बिरुद्ध सख्त कार्यबाही होगी यह बात लोक निर्माण मंत्री शिबपालसिंह यादबने कह कर सरकार के इरादो सेरुबरु करा दिया है।बसपा के र्पूव राष्टीय प्रबक्ता सुधीर गोयल कहते है कि र्मूिर्तयों के निर्माण करने या न करने केसन्दर्भ मे कोई कानूनीप्रतिबन्ध नहीं हैं। बहुजन समाज पार्टीकी सरकार ने नियम बिरुद्ध कोई कार्य नहीं किया ह ैइसीलिऐ न्यायालय मे भी हमे न्याय मिला। 
गौरतलब है कि माया सरकार ने मूर्तियों के लिये 527 करोड़ और सूखे के लिये महज 250 करोड़ का प्रावधान किया था जो कि मायावती के असीम मूर्ति प्रेम को दर्शाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्यमंत्री को उनकी हेण्डबुक सहित उनके गुरू कांशीराम और बीआर अम्बेडकर की राज्यभर में चालीस मूर्तियों को स्थापित करने की भव्य योजना संबंधित नोटिस जारी किया था, एक अनुमान के मुताबिक मायावती ने मूर्तियां बनाने के लिए दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए थे। लाल पत्थर में तराशी गई यह बेशकीमती मूर्तियां यूपी के नोएडा और लखनऊ जैसे शहरों में लगी हैं। 
कांशीराम और मायावती की लगी हुई मूर्तियों की लागत एक अनुमान के अनुसार 665 करोड़ रुपए है। वहीं हाथियों की हर मूर्ति की कीमत सत्तर लाख से ज्यादा है। राज्य भर में हाथी के दर्जनों पुतले स्थापित किए गए, जो मायावती की पार्टी बसपा के चुनाव चिन्ह का प्रतीक हैं।   वर्ष 1995 में जब मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं तो स्मारक की नींव डाली थी, नींव पड़ने के साथ इस स्थल को डा. भीमराव अम्बेडकर उद्यान कहा गया। वर्ष 1997 में जब मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनीं तो इसे डा. भीमराव अम्बेडकर स्मारक के रूप में विकसित करने की प्रक्रिया शुरू हुई, जो वर्ष 2002-03 में उनके तीसरे कार्यकाल के दौरान भी जारी रही। इसी के साथ 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनते ही मायावती ने इस स्मारक का नये सिरे से जीर्णोद्घार किया। 
ः- कैसा है स्मारकः-
1370 करोड़ रुपये से निर्मित यह सामाजिक परिवर्तन स्थल बीते वर्ष अक्टूबर पूरी तरह से आम जनता के लिए खोल दिया गया। यह स्थल अपने भीतर कई अन्य स्मारकों को भी समाहित किये हुए है जिसमें कमल आकृति प्रस्तुत करता हुआ डा. भीमराव अम्बेडकर स्मारक। जिसका निर्माण 6.5 एकड़ के क्षेत्र किया गया है, जिसमें 4 भव्य चैत्य द्वार है। इसकी दीवारें गुलाबी रंग की मकराना संगमरमर से बनी हैं। भवन के मुख्य गुम्बद के नीचे स्मारक का भव्य हाल है, जिसमें अम्बेडकर के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए कांस्य के आकर्षण वित्ती चित्र बनाये गए हैं। यहां से सटे मुख्य वृक्ष में अम्बेडकर की बैठी हुई मुद्रा में भव्य कांस्य प्रतिमा स्थापित है, जो ठीक वैसी ही है, जैसा कि वाशिंगटन के लिंकन मेमोरियल में लगी अब्राहम लिंकन की मूर्ति। 
इस स्मारक से बाहर निकलते ही सामने गुम्बदाकार दो विशाल भवन का 2.5 एकड़ में फैला संग्रहालय बना है, इनमें से एक के अंदर सामाजिक परिवर्तन के प्रणेता ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, डा. भीमराव अम्बेडकर, कांशीराम और दूसरे भवन में गौतमबुद्घ, कबीरदास, रविदास, घासीदास, बिरसामुंडा की 18 फुट ऊंची मूर्तियां स्थापित की गयी हैं। गौरतलब है कि यहां पर हाथियों की 62 प्रतिमाएं लगी हंै। 
लोगों में सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र दोनों भवनों के अंदर बीच में कांसे के गुम्बद के नीचे बनी पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की चहुंमुखी मूर्ति है। इसी के साथ कांशीराम और मायावती की 18 फीट ऊंची कांस्य की मूर्तियां स्थापित हैं। भवन की दीवारों पर कांशीराम की छह विशालकाय कांस्य झांकियां हैं। इसी स्मारक के बगल में कांशीरामजी ग्रीन गार्डेन 112 एकड़ क्षेत्रफल में बना है। 1075 करोड़ रुपये की लागत से बने इस इको पार्क के लिए पीपल, साइकस, पर 52 फुट ऊंचे कांसे के दो फुव्वारे हैं। 
भीमराव अम्बेडकर गोमती बुद्घ विहार
700 मीटर लम्बाई में गोमती नदी के किनारे बने बांध के ऊपर 30 मीटर चैड़ा, रिवर फ्रंट बनाया गया है, जो 7.5 एकड़ में फैला है। इस विहार में गौतमबुद्घ की 18 फीट ऊंची चहुंमुखी संगमरमर की प्रतिमा स्थापित की गयी है। सामाजिक परिवर्तन स्थल के सामने ढलान पर कुल 12 छतरी निर्मित कर ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, डा. भीमराव अम्बेडकर, रमाबाई अम्बेडकर, गौतमबुद्घ, घासीदास, कबीरदास, संत रविदास बिरसा मुंडा, कांशीराम और मायावती की सात फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गयी है। 
समतामूलक चैक
गोमती नदी पर नवनिर्मित आठ लेन पुल, गोमती बैराज व सेतु पर यातायात के नियंत्रण के लिए समतामूलक चैक का निर्माण किया गया है। यहां पर छत्रपति शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले और नारायण गुरु की प्रतिमाएं स्थापित हैं। विशाल फुव्वारों से युक्त चैक का क्षेत्रफल 27,900 वर्ग मीटर है। 
सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल
गोमती तटबंध पर एक बड़े क्षेत्रफल में कर्टेन वॉल बनाकर सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल विकसित किया गया है। इसके एक ओर कांशीराम और मायावती की 14 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा है, तो दूसरी ओर भीमराव अम्बेडकर और उनकी पत्नी रमाबाई अम्बेडकर की मूर्तियां लगायी गयी हैं। निर्माण के वक्त इन सभी प्रतिमाओं कों सैंड स्टोन से तीन ओर से घेरा गया था और इसके ऊपर नक्काशीदार छतरी लगायी गयी थी। 
अम्बेडकर गोमती विहार व पार्क
 गोमती नदी के आसपास में क्षेत्र के सुन्दरीकरण के लिए तटबंध के एक ओर करीब 90 एकड़ क्षेत्रफल को चार भागों में बांटकर अम्बेडकर गोमती विहार बनाया गया है। साथ ही 22 एकड़ जमीन पर अम्बेडकर गोमती पार्क बनाया गया है, जहां लगा म्यूजिकल फाउंटेन यहां आने वाले लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचता है। 
ढंका हाथी खाक साबित हुआ 
हाथियों की बात की जाए तो, खुला हाथी अगर लाख का था, तो वहीं ढंका हाथी खाक साबित हुआ। देखा जाए तो मायावती और पार्टी के प्रतीक चिन्ह की मूर्ति लगवाना संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन है। लखनऊ और नोएडा में बनाए गए स्मारकों व पार्कों के मामले में घिरी मायावती मुस्लिम मतों के सपा की झोली में चले जाने का सीधा आरोप मढ़कर अपनी साख बचाने की कबायद कर चुकी है। वे कई मामलों में सपा सरकार को मुश्किलों में डालने की तैयारी कर रही हैं। बड़े सियासी दांव के तहत लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को तगड़ा झटका लगे तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। दलित और दलितोतर जातियों के बीच यह सन्देश देने की कवायद है कि बसपा सुप्रीमो किसी से भी टकरा सकती हैं। लम्बे वक्त तक शोषण का शिकार रही जातियों को आत्मबल देने की यह कोशिश कितना रंग लाती है, यह तो अब वक्त ही बतायेगा। मायावती व्यक्ति पूजा के साथ-साथ स्वपूजा में कितना अधिक विश्वास रखती हैं, निःसंदेह इसके प्रमाण भी हैं। कांशीराम की मूर्तियों सहित पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की कई मूर्तियां लगवाने  2008-09 व 2009-10 के राज्य बजट से करीब दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के बजट का 90 प्रतिशत मायावती ने इन मूर्तियों के लगवाने पर खर्च किया, इसमें 2 हजार करोड़ रुपए अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल के निर्माण पर, 370 करोड़ रुपए कांशीराम स्मारक, 90 करोड़ कांशीराम सांस्कृतिक स्थल पर इसी तरह 90 करोड़ रुपए बुद्ध स्थल और 65 करोड़ रमाबाई अंबेडकर मैदान पर लुटा दिये। स्पष्ट है, मायावती ने सत्ता में आने के साथ ही पार्क, स्मारक और मूर्तियों पर चालीस हजार करोड़ रुपए खर्च कर दिए। लखनऊ को पत्थरों का शहर बना दिया गया, जिससे जनता का धन बर्बाद हो गया। इस राशि को यदि जनता के हितों में लगाया जाता तो राज्य का काफी विकास हो जाता।  
मायावती की बहुजन समाज पार्टी भारत की सबसे अमीर पार्टियों में से एक है। घोषित पार्टी फंड छोड़ दिया जाए तो खुद बसपा के जिम्मेदार लोग मानते हैं कि अगला लोकसभा चुनाव पूरे देश में लड़ने के लिए एक विराट कोष बनाया है। शशि भाई भोजपुरी तो यहां तक कह चुकें हैं कि बहिन जी के तनिक भी सोचे के चाही कि दलित दलित करेनी बाकी ई जेतना पैसा मूर्ति बनवाला मे खर्चा करत बानी पैसा के खर्चा कइला क मतलब का बा???  केतना फायदा बा ???? जे संम्माननीय रहल आ बा उनके त पूरा देश याद करते बा आ करते रही, मूर्ति लगा के उ ई काहे देखावल चाहत बानी कि इहे सरकार राज बा.....
दूसरी तरफ चुनाव विश्लेषक नीतिश कुमार का कहना था कि मायावती की सोच को बहुत कम लोग समझ पाये। मुझे तो शक है कि मायावती खुद अपने मूर्ति प्रेम का समझ पायी या नहीं?
अखिलेश यादब तो मायावती की मूर्ति और उनके पर्स पर कटाक्ष अब भी कर रहेे हैं। पिछले दिनो एक कार्यक्रम मेंकहा था कि जिस कंपनी का पर्स वह लेकर चलती हैं उसकी कीमत 15 लाख रुपये से शुरू होती है। उन्होंने मजाकिया अंदाज में यह भी कह डाला कि आप भरोसा रखिए मैं अपनी मूर्ति नहीं बनवाऊंगा क्योंकि भारतीय संस्कृति के अनुसार जिंदा लोगों की मूर्ति नहीं बनती। 
दलितों के आत्मसम्मान के मायावती के तर्क और अरबों के आत्मसम्मान के सद्दाम के नारे में फर्क दिखना बंद सा हो गया है। ज्यादातर मामलों में सद्दाम और मायावती की तुलना नहीं हो सकती, लेकिन जीतेजी अपनी मूर्तियां बनवाने का शौक दोनों में एक जैसा दिखता है। अपनी मूर्तियां लगवाने की गहरी ललक के पीछे कहीं एक गहरा अविश्वास है कि इतिहास के गर्त में जाने के बाद शायद लोग याद न रखें। मगर शख्सियतों का आकलन, इतिहास अपने निर्मम तरीके से करता है और उसमें मूर्तियां नहीं गिनी जातीं।
सोवियत संघ के विघटन के बाद, क्रेमलिन में धड़ से टूटकर गिरा हुआ लेनिन की मूर्ति का सिर हो या फिरदौस चैक पर जंजीरों से खींचकर गिराई गई सद्दाम की मूर्ति। ये इतना तो जरूर बताती हैं कि उनके जरिए बहुत लंबे समय तक लोगों के दिलों पर राज नहीं किया जा सकता। 
लगातार उठती रहीं अंगुलियां
दलित महापुरुषों की याद में बनाये गये स्मारकों में अनेक कमियां भी हैं। भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में डा. भीमराव अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल और कांशीराम स्मारक स्थल को विकसित करने की आपत्तियां हैं। दोनों ही स्थलों का काम उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम को दिया गया था। दिसंबर 2009 तक दोनों कार्यों पर 1776.57 करोड़ रुपये खर्च हो गए थे। रिपोर्ट के मुताबिक चुनार (मिजार्पुर) से पत्थर लेकर उसे नक्काशी के लिए 670 किलोमीटर दूर बयाना (राजस्थान) भेजा गया। यहां से पत्थरों को 450 किलोमीटर दूर लखनऊ लाया गया। इससे पत्थरों की ढुलाई में ही करोड़ों रुपये खर्च कर दिये गए। सीएजी का मानना है कि यदि चुनार में ही पत्थर कांटने वाले को नियुक्त कर नक्काशी करायी जाती तो लागत को 15.60 करोड़ रुपये तक कम किया जा सकता था। अगस्त, 2010 में विधानसभा के अंदर रखी गयी रिपोर्ट में भी सीएजी ने स्मारक स्थल के विस्तार के लिए एक स्टेडियम को गिराने का एतराज किया था।
कैग ने इस तथ्य को गंभीरता से लिया था कि गिराये गए स्टेडियम और उससे सटे संग्रहालय की इमारत बमुश्किल दस साल पुरानी थी। यही नहीं चार अक्टूबर 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने मायावती सरकार को आदेशों की अवहेलना करते हुए लखनऊ में स्मारकों का निर्माण कार्य जारी रखने पर कड़ी फटकार लगायी थी। 
सुप्रीम कोर्ट ने मायावती सरकार से तल्ख लहजे में यह भी कहा था कि न्यायालय से राजनीति का खेल मत खेलिए जैसा कि आप विधानसभा में अन्य राजनीतिक दलों के साथ खेलते हैं। अधिकारियों के मुताबिक यहां पर एक विशाल होटल बनाने की योजना थी, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल होने के बाद एलडीए ने दुबारा इस भूमि का उपयोग बदलकर हरित पट्टी कर दिया और यहां पर पार्क बनाने का निर्णय लिया गया। अखिलेश यादबकी काट के लिये तरह-तरह के विकल्प खोज रही मायावती के सामने संकटों का पहाड़ टूटता नजर आ रहा है। जिस दलित वर्ग के दम पर बड़ो-बड़ों से लोहा लेने वाली माया से लोहा लेता अखिलेश यादब का अनूॅठा अन्दाज दलित वर्ग को सिर्फ लुभा ही नही रहा है बल्कि उसे उनके साथ कदम दर कदम चलने को मजबूर कर रहा है। बसपा सुप्रीमों हार मानने वाली नही है उन्होंने राजनीति को पटरी पर लाने के लिऐ दलित वर्ग सहारा लिया है।


यह आलेख बिना अनुमति प्रकाशन प्रतिबंधित है।





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यह स्टोरी 2012 में कई पत्र और पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी,दस्तावेज-2012 के तहत तत्कालीन समय के राजनैतिक माहौल को समझाने के उद्देश्य  से पुनः प्रकाशित कर रहे है।


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यह आलेख कापीराइट के कारण किसी भी अंश का पुर्न प्रकाशन लेखक की अनुमति आवाश्यक है।


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लेखक का पता


सुरेन्द्र अग्निहोत्री
ए-305, ओ.सी.आर.
बिधान सभा मार्ग,लखनऊ
मो0ः 9415508695,8787093085








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