संबोधन/ प्रांतीय विद्वेष केवल हिंदी मिटा सकती है...

प्रांतीय विद्वेष केवल हिंदी मिटा सकती है...
 हिंदी प्रेमियों,
 बड़ी खुशी के साथ इस नगर में हम लोग आपका स्वागत करते हैं।, जो सज्जन
कलकत्ता से वाकिफ हैं उनको यह बतलाने की जरूरत नहीं कि कलकत्ता में पांच
लाख हिंदी भाषा-भाषी रहते हैं। शायद हिंदुस्तान के किसी भी प्रांत में-
जो प्रांत हिंदी वालों के घर हैं उसमें कहीं कितने हिंदुस्तानी जवान
बोलने वाले नहीं पाए जाते। साहित्य की दृष्टि से भी कलकत्ता राजस्थान
हिंदी के इतिहास में बहुत ऊंचा है। मैं हिंदी भाषा का पंडित नहीं हूं।
बड़े बड़े खेद के साथ मुझे यह बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि मैं शुद्ध हिंदी
बोल भी नहीं सकता। इसलिए मुझसे आप उम्मीद नहीं कर सकते कि मैं हिंदी
साहित्य के प्रारंभिक इतिहास के विषय में कुछ कहूं। अपने मित्रों से
मैंने सुना है कि आजकल की हिंदी गद्य का जन्म कलकत्ता में ही हुआ था।
लल्लू जी लाल ने अपना प्रेमसागर इसी नगर में बैठ कर रचा था और सदल मिश्र
ने चंद्रावली की रचना यहीं पर की। और यह दोनों सज्जन हिंदी गद्य के
आचार्य माने जाते हैं। हिंदी का सबसे पहला प्रेस कलकत्ता में ही बना और
सबसे पहला अखबार बिहार बंधु यहीं से निकला, इसीलिए हिंदी संपादन कला के
इतिहास में कलकत्ता का एक स्थान बहुत ऊंचा है। सबसे पहले कलकत्ता
विश्वविद्यालय ने हिंदी को एम.ए. की कक्षा में स्थान दिया। आज कल भी
हिंदी के लिए जो काम कलकत्ता में हो रहा है वह महत्वपूर्ण है।, इसीलिए
जिन की मातृभाषा हिंदी है , कलकत्ता उनके लिए घर जैसा ही है। कम से कम वे
तो हमारी स्वागत त्रुटियों या अभाव के लिए हमें क्षमा ही कर देंगे। सबसे
पहले मैं एक गलतफहमी दूर करना चाहता हूं ।कितने ही सज्जनों का ख्याल है
कि बंगाली लोग या तो हिंदी के विरोधी होते हैं या उसके प्रति उपेक्षा
करते हैं। वे पढे लोगों में नहीं, बल्कि सुषिक्षित सज्जनों में भी इस
प्रकार की आशंकाएं पाई जाती हैं। यह बात भ्रमपूर्ण है इसका खंडन करना मैं
अपना कर्तव्य समझता हूं।,
बिहार में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि के प्रचार के लिए स्वर्गीय भूदेव
मुखर्जी ने जो महान उद्योग किया था क्या उसे हिंदी भाषा-भाषी लोग भूल
सकते हैं ।और पंजाब में स्वर्गीय नवीन चंद्र राय ने हिंदी के लिए जो
प्रयत्न किया, क्या वह कभी भुलाया जा सकता है। मैंने सुना है कि यह काम
इन दोनों बंगालियों ने 1880 के लगभग ऐसे समय में किया था जबकि बिहार और
पंजाब के हिंदी भाषा-भाषी या तो हिंदी के महत्व को समझते ही ना थे अथवा
उसके विरोधी थे ।यह लोग उत्तरी भारत में हिंदी आंदोलन के पथ प्रदर्शक कहे
जा सकते हैं ।संयुक्त प्रांत अब उत्तर प्रदेश में इंडियन प्रेस के स्वामी
स्वर्गीय चिंतामणि घोष ने प्रथम सर्वश्रेष्ठ मासिक पत्रिका सरस्वती
द्वारा और पचासों हिंदी ग्रंथों को छापकर हिंदी साहित्य की जितनी सेवा की
है ,उतनी सेवा हिंदी भाषा की किसी प्रकाशक ने शायद ही की होगी। जस्टिस
शारदा चरण मित्र ने एक लिपि विस्तार परिषद को जन्म देकर और देवनार नागर
पत्र निकालकर हिंदी के लिए प्रशंसनीय कार्य किया था। हितवार्ता के स्वामी
एक बंगाली थे और हिंदी बंगभाषी अभी इसी प्रांत के एक निवासी द्वारा
निकाला जा रहा है ।आजकल हम लोग भी हिंदी साहित्य की थोड़ी बहुत सेवा कर ही
रहे हैं। कौन ऐसा कृतज्ञ होगा, जो श्री अमृतलाल जी चक्रवर्ती की जो 45
वर्ष से हिंदी पत्र का संपादन का कार्य कर रहे हैं, हिंदी की सेवा को भूल
जाए? श्री नागेंद्र नाथ बसु लगभग 15 वर्ष हिंदी विश्वकोश द्वारा हिंदी की
सेवा कर रहे हैं। श्री रामानंद चटर्जी विशाल भारत द्वारा हिंदी की सेवा
कर रहे हैं। हमारी भाषा के जिन 50 ग्रंथों का अनुवाद हिंदी में हुआ है और
उनमें हिंदी भाषियों के ज्ञान की वृद्धि हुई है उसकी बात मैं यह नहीं
कहूंगा।
 शेखी नहीं मारता व्यर्थ अभिमान नहीं करता, पर मैं नम्रतापूर्वक आप से
पूछना चाहता हूं क्या यह सब जानते हुए भी कोई यह कीने का साहस कर सकता है
कि हम लोग हिंदी के विरोधी हैं ?इस बात को मानता हूं कि बंगाली लोग अपनी
मातृभाषा से अत्यंत प्रेम करते हैं पर है कोई अपराध नहीं है। हिंदी
प्रचार का उद्देश्य केवल यही है कि आजकल जो काम अंग्रेजी में लिया जाता
है वह आगे चलकर हिंदी में लिया जाए, अपनी माता से भी अधिक प्यारी हमारी
मातृभाषा बंगला को तो हम कदापि नहीं छोड़ सकते। भारत के विभिन्न विभिन्न
प्रांतों के भाइयों से बातचीत करने के लिए हिंदी या हिंदुस्तानी तो हमको
सीखनी ही चाहिए और स्वाधीन भारत के नवयुवकों को हिंदी के अतिरिक्त जर्मन,
फ्रेंच आदि यूरोपियन भाषाओं में से भी एक दो सीखनी पड़ेगी, नहीं तो हम
अंतर्राष्ट्रीय मामलों में दूसरी जातियों का मुकाबला नहीं कर सकेंगे।
लिपि का झगड़ा मैं नहीं उठाना चाहता। महात्मा जी इस बात से  मैं सहमत हूं
कि हिंदी और उर्दू लिपि दोनों का क्या जानना जरूरी है। आगे चलकर जो नीति
अधिक उपयुक्त सिद्ध होगी वही स्थान पाएगी। उसके लिए झगड़ा करना व्यर्थ है।
सरल हिंदी और सरल उर्दू दोनों एक ही हैं।
 महात्मा जी से आप लोगों से मैं प्रार्थना करूंगा कि हिंदी प्रचार का
जैसा प्रबंध आपने मद्रास में किया वैसा बंगाल और असम में भी करें। स्थाई
कार्यालय खोलकर आप लोग बंगाली छात्रों तथा कार्यकर्ताओं को हिंदी पढ़ाने
का इंतजाम कीजिए ।इस कोलकाता में कितने ही बंगाली छात्र हिंदी पढ़ने को
तैयार हो जाएंगे। पढ़ने वाले चाहिए। बंगाल धनवान प्रांत नहीं है। और ना
यहां के छात्रों के पास इतना पैसा है कि वह शिक्षक रखकर हिंदी पढ़ सकें।
यह कार्य तो अभी आप लोगों को करना होगा और कल कोलकाता के धनी मनी हिंदी
भाषा भाषी सज्जन इधर ध्यान द,ें तो कोलकाता में ही नहीं बंगाल तथा असम
में भी हिंदी का प्रचार-प्रसार होना बहुत कठिन कार्य नहीं है। आप बंगाली
छात्रों को छात्रवृत्ति देखकर हिंदी का प्रचारक बना सकते हैं ।बोलचाल की
भाषा चार-पांच महीने में पढ़ कर और फिर परीक्षा देखकर आप लोग हिंदी का कोई
प्रमाण पत्र दे सकते हैं। मेरे जैसे आदमी को भी, जिसे बहुत कम समय मिलता
ह,ै आप हिंदी पढ़ आइए और फिर परीक्षा लीजिए। हम लोग तो मजदूर आंदोलन में
काम करते हैं, हिंदुस्तानी भाषा की जरूरत को हर रोज महसूस करते हैं। बिना
हिंदुस्तानी भाषा जाने हम उत्तरी भारत के मजदूरों के दिलों तक नहीं पहुंच
सकते।, अगर हम आप सबके लिए हिंदी पढ़ाने का इंतजाम कर देंगे, तो में यह
विश्वास दिलाता हूं कि हम लोग आपकी योग्य शिष्य होने का भरपूर प्रयत्न
करेंगे।
 अंत में बंगाल के निवासीया हैं और खासकर यहां के नव युवकों से मेरा
अनुरोध है कि आप हिंदी पढ़े ।जो लोग अपने पास से शिक्षक रखकर पढ़ सकते
हैं,वे बैसा करें। आगे चलकर बंगाल में हिंदी प्रचार का भारत उन्हीं पर
पड़ेगा ,यद्यपि अभी हिंदी प्रांतों से सहायता लेना अनिवार्य है।दस-बीस
हजार या लाख-दो लाख आदमियों के हिंदी पढ लेने का महत्व केवल पढ़ने वालों
की संख्या  पर ही निर्भर नहीं है। यह कार्य बड़ा दूरदर्शितापूर्ण है और
इसका परिणाम बहुत दूर आगे चलकर मिलेगा। प्रांतीय ईष्र्या- विद्वेष को दूर
करने में जितनी सहायता इस हिंदी प्रचार से मिलेगी ,उतनी दूसरी किसी चीज
से नहीं मिल सकती।
 अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए। मैं उस में कोई बाधा
नहीं डालना चाहता और ना हम किसी की बाधा को सहन हीं कर सकते हैं, पर सारे
प्रांतों की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी या हिंदुस्तानी को ही मिलेगा।
नेहरू रिपोर्ट में भी इसकी सिफारिश की गई है। यदि हम लोगों के तन मन धन
से प्रत्यन किया वह दिन दूर नहीं जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्र
भाषा होगी हिंदी ।
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
29 दिसंबर 1928 को कोलकाता में राष्ट्रभाषा सम्मेलन के स्वागत समिति के
अध्यक्ष के रुप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जो हिंदी में भाषण दिया था
हिंदी दिवस पर प्रस्तुत है। इस सभा का सभापतित्व महात्मा गांधी ने किया
था


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?