सेक्युलरिज्म का अर्थ भारतीयता का विरोध
विनायक शाह नाम के व्यक्ति ने सर्वोच्च न्यायालय मे याचिका दाखिल कर कहा है कि केंद्रीय विद्यालयों में १९६४ से हिंदी-संस्कृत में प्रार्थना हो रही हैं, जो कि पूरी तरह असंवैधानिक हैं। याचिकाकर्ता ने इसे संविधान के अनुच्छेद २५ और २८ के विरुद्ध बताते हुए कहा है कि इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। एक ओर न्यायालय में अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे सुनवाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वहीं माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 'प्रार्थनाओं' को संवैधानिक मुद्दा मान कर उक्त याचिका पर विचार करना आवश्यक समझ लिया है। बड़ी तत्परता दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और केंद्रीय विद्यालय संगठन से इस संबंध में उत्तर माँगा है।
सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ अब विचार करेगी की केन्द्रीय विद्यालय के छात्रों को संस्कृत में प्रार्थना करना चाहिए या नही। यदि यही प्रार्थना अंग्रेजी में होती तो कोई आपत्ति नही होती।
दूसरी आपत्ति प्रार्थना का उपनिषदों से होना है। विश्व की प्रथम पुस्तक वेद है ऐसा अब युनेस्को भी मानने लगा है। उपनिषद् वेदों का ही हिस्सा है। जो वैश्विक धरोहर है और भारतीयता की देन है उसे सेकुलर लोगों का एक प्रतिनिधि नकार रहा है।
केन्द्रीय विद्यालयों मे प्रार्थना है "असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।"
इसका अर्थ है - हमारी जीवन यात्रा असत् से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और नश्वरता से अमरत्व की ओर जाने वाली हो। यह प्रार्थना बृहदारण्यकोपनिषद् से ली गई है। क्या वाकई उक्त प्रार्थना सम्प्रदाय विशेष का प्रचार करती है या फिर शिक्षा के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करती है?
इसी तरह, केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत की एक और प्रार्थना कराई जाती है -
सहनाववतु सहनौ भुनक्तु
सहवीर्यं करवावहै। तेजस्विनामवधीतमस्तु मा विद्विषावहै।
ओ3म् शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।
यह तैतरीय उपनिषद् से ली गयी है। इसका अर्थ है - 'हे परमात्मन्! आप हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों को साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें।' क्या याचिकाकर्ता एवं उसके साथ खड़े लोग बता सकते हैं कि इस प्रार्थना से किस सम्प्रदाय का प्रचार हो रहा है? यह प्रार्थना तो एकता को बढ़ावा देने वाली है। आपस में मिल-जुल कर रहने का संदेश देती है। एक-दूसरे के प्रति द्वेष नहीं अपितु स्नेह करने की सीख देती है। प्रार्थना बंद करने से तो अच्छा होगा कि प्रतिदिन विद्यार्थियों को प्रार्थनाओं का अर्थ भी समझाया जाए। ताकि वह प्रार्थना के मर्म को आत्मसात् कर एक सुसंस्कृत समाज के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करें।
वर्तमान भारत का बोध वाक्य है "सत्यमेव जयते।" अर्थ - सत्य की ही विजय होती है। यह भी उपनिषद् का वाक्य है। क्या इसे हटाने का अनुरोध होगा ? और न्यायाधीश उस पर भी विचार करेंगे ? जिह्नोने संविधान बनाया वह यदि जीवित होते तो वे माथा पीटते। एक तो उह्नोने संविधान के प्रियेंबल मे सेक्युलर शब्द डाला ही नही था। यह तो इंदिरा गांधी ने आपत्काल में छल से संविधान में जोडा। कारण उह्ने अपनी काली करतूतों के लिए CPI की सहायता आवश्यक थी। संविधान निर्माता तो देशभक्त थे। उनको भारत की प्राचीन धरोहर से प्रेम था। इसलिए नन्दलाल बोस जैसे प्रख्यात चित्रकार से संविधान की मूल प्रत में रामायण, महाभारत और उपनिषद् से सम्बन्धित चित्र बनवाये है। संविधान के भाग ५ की सज्जा मे ऋषि के पास बैठकर शिष्य उपनिषदीय ज्ञान प्राप्त कर रहे है ऐसा दिखाया गया है। यदि उपनिषदों से (जो वेदों का हिस्सा है) पथ्य होता तो ऐसा क्यों होता ?
याचिकाकर्ता को सर्वोच्च न्यायालय की धर्मनिरपेक्षता पर भी प्रश्न उठाने का साहस दिखाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है - 'यतो धर्मस्ततो जय:।' अर्थात् जहाँ धर्म है, वहाँ विजय है। न्यायपालिका ने यह वाक्य श्रीमद्भगवतगीता से लिया है।महाभारत में इसका अनेक स्थान पर उल्लेख आता है। क्या यह वाक्य किसी धर्म विशेष का प्रचार नहीं करता?
केंद्रीय विद्यालय संगठन का ध्येय वाक्य 'तत् त्वं पूषन् अपावृणु' भी ईशावस्योपनिषद् से लिया गया है, जिसका अर्थ है - 'हे सूर्य ! ज्ञान पर छाए आवरण को हटाएं।' देश के अनेक शिक्षा संस्थानों और सरकारी संघटनों के ध्येय वाक्य भारतीय ग्रंथों से ही लिए गए हैं। इसका क्या यह अभिप्राय है कि यह सब संस्थान हिंदू धर्म के प्रचार के लिए स्थापित किए गए हैं?
बात संस्कृत की लीजिये। संविधान मान्य २२ भाषाओं की सूची मे पहले दिन से ही संस्कृत है। उसे बाद मे नही जोडा है जैसीे कुछ अन्य भाषाएं जुडी है। हिन्दी को यद्यपि राजभाषा कहा गया है फिर भी आगे जोडा है कि हिन्दी नयी विकसनशील भाषा होने के कारण उसके विकास का आधार संस्कृत होना चाहिए।
संसद भवन में जहाँ तहाँ संस्कृत मे बोध वाक्य लिखे हैं। जैसे लोकसभा के सभापति के आसन के पीछे "धर्मचक्रप्रवर्तनाय" लिखा है। इन वाक्यों को लेकर पूर्व राज्यसभा सदस्य एवं पूर्व मुख्य न्यायाधीश (हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय) राम ज्याईस ने एक पुस्तक लिख डाली है। भारत सरकार के अधिवक्ता ने न्यायालय मे ठीक ही प्रश्न किया कि क्या इन सब को भी बदलेंगे ?
संस्कृत के बिना तो भारतीय भाषाओं की कल्पना भी नही की जा सकती। यदि संस्कृत के शब्दों को इन भाषाओं से हटाया जायेगा तो सब पंगु बन जायेंगी। संस्कृत को हटाना है तो लायेंगे किसको, इसका उत्तर भी वादी ने न्यायालय में देना चाहिए।
केंद्रीय विद्यालय में गाई जाने वाली हिंदी की प्रार्थना है - 'दया कर दान विद्या का हमें परमात्मा देना। दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना...। ' इस पूरी प्रार्थना में एक बार भी हिंदू शब्द नहीं आता। इस प्रार्थना में एक बार भी किसी हिंदू देवी-देवता का नाम नहीं आता है। फिर किस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह प्रार्थना हिंदुत्व का प्रचार करती है? यह प्रार्थनाएं भारतीय ज्ञान-परंपरा का प्रतिनिधित्व करती हैं और उसी का प्रचार करती हैं।
केंद्रीय विद्यालय में पढ़ने वाले मुस्लिम और ईसाई विद्यार्थियों एवं उनके अभिभावकों ने भी कभी प्रार्थनाओं पर आपत्ति नहीं की।विद्यालय में पढ़ाने वाले मुस्लिम और ईसाई शिक्षकों को भी कभी ऐसा नहीं लगा कि प्रार्थनाएं किसी धर्म का प्रचार कर रही हैं। किन्तु, अब अचानक से एक व्यक्ति को यह प्रार्थनाएं असंवैधानिक दिखाई देने लगी हैं। क्या वाकई उक्त प्रार्थनाएं धर्म का प्रचार करती है या फिर शिक्षा के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करती है?
धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों को समझना चाहिए कि इन प्रार्थनाओं से विभेद का संकेत मिलता होता, तो उनके गाए जाने पर प्रश्न उठाना उचित होता। सत्य तो यह है कि उक्त प्रार्थनाएं किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रचार नहीं, अपितु भारतीय जीवन मूल्यों का प्रचार कर रही हैं।वितंडावादियों को प्रत्येक बात में सम्प्रदाय को घसीटने की अपेक्षा कुछ रचनात्मक दृष्टिकोण का प्रदर्शन करना चाहिए। हर बात को 'सीमित चश्मे' से देखकर अपनी सांप्रदायिक सोच को उजागर करना उनके लिए भी ठीक नहीं है। इससे समाज की शांति भंग होती है। वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में हिंदू धर्म की व्याख्या 'संप्रदाय' के रूप में नहीं, अपितु एक जीवन पद्धति के रूप में की है। हिंदू ग्रंथों से ली गई उक्त प्रार्थनाएं, श्लोक एवं मंत्र भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि हिंदू धर्म एक जीवन पद्धति है। वह संकीर्ण नहीं है। दुराग्रही नहीं है। जीवन को बांधने वाली नहीं है। यह प्रार्थनाएं हमारी दृष्टि को संकुचित नहीं करतीं, अपितु कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती हैं। यह प्रार्थनाएं हमें उदारमना और श्रेष्ठ नागरिक बनाने में सहायक ही नहीं, अपितु आवश्यक हैं।
भारतीय शिक्षा को राजनीति से परे रखना चाहिए था। किन्तु विदेशों के नकलची होने के कारण हमने उसे सरकार के अधीन कर दिया। सरकार ने उसे अभारतीय समाज निर्माण करने का उपकरण माना। १९९५ मे हमने विश्व व्यापार संघटन के सदस्य बनने के कारण शिक्षा को सेवा उद्योग घोषित किया। परिणाम यह हुआ कि जो समाज सेवा का पवित्र साधन माना जाता था वह अब धन कमाने का माध्यम बन गया। ऐसे मे शिक्षा और संस्कार पक्ष तो दुर्बल होना ही था। उसका परिणाम है इन उलजलूल बातों को महत्व मिलना। अब अनावश्यक बातों मे न्यायालय का बहुमूल्य समय बीतेगा।
जय हो भारत की और उसके विकास की !
, केन्द्रीय विद्यालय का पूर्व छात्र।
सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ अब विचार करेगी की केन्द्रीय विद्यालय के छात्रों को संस्कृत में प्रार्थना करना चाहिए या नही। यदि यही प्रार्थना अंग्रेजी में होती तो कोई आपत्ति नही होती।
दूसरी आपत्ति प्रार्थना का उपनिषदों से होना है। विश्व की प्रथम पुस्तक वेद है ऐसा अब युनेस्को भी मानने लगा है। उपनिषद् वेदों का ही हिस्सा है। जो वैश्विक धरोहर है और भारतीयता की देन है उसे सेकुलर लोगों का एक प्रतिनिधि नकार रहा है।
केन्द्रीय विद्यालयों मे प्रार्थना है "असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।"
इसका अर्थ है - हमारी जीवन यात्रा असत् से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और नश्वरता से अमरत्व की ओर जाने वाली हो। यह प्रार्थना बृहदारण्यकोपनिषद् से ली गई है। क्या वाकई उक्त प्रार्थना सम्प्रदाय विशेष का प्रचार करती है या फिर शिक्षा के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करती है?
इसी तरह, केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत की एक और प्रार्थना कराई जाती है -
सहनाववतु सहनौ भुनक्तु
सहवीर्यं करवावहै। तेजस्विनामवधीतमस्तु मा विद्विषावहै।
ओ3म् शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।
यह तैतरीय उपनिषद् से ली गयी है। इसका अर्थ है - 'हे परमात्मन्! आप हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों को साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें।' क्या याचिकाकर्ता एवं उसके साथ खड़े लोग बता सकते हैं कि इस प्रार्थना से किस सम्प्रदाय का प्रचार हो रहा है? यह प्रार्थना तो एकता को बढ़ावा देने वाली है। आपस में मिल-जुल कर रहने का संदेश देती है। एक-दूसरे के प्रति द्वेष नहीं अपितु स्नेह करने की सीख देती है। प्रार्थना बंद करने से तो अच्छा होगा कि प्रतिदिन विद्यार्थियों को प्रार्थनाओं का अर्थ भी समझाया जाए। ताकि वह प्रार्थना के मर्म को आत्मसात् कर एक सुसंस्कृत समाज के निर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करें।
वर्तमान भारत का बोध वाक्य है "सत्यमेव जयते।" अर्थ - सत्य की ही विजय होती है। यह भी उपनिषद् का वाक्य है। क्या इसे हटाने का अनुरोध होगा ? और न्यायाधीश उस पर भी विचार करेंगे ? जिह्नोने संविधान बनाया वह यदि जीवित होते तो वे माथा पीटते। एक तो उह्नोने संविधान के प्रियेंबल मे सेक्युलर शब्द डाला ही नही था। यह तो इंदिरा गांधी ने आपत्काल में छल से संविधान में जोडा। कारण उह्ने अपनी काली करतूतों के लिए CPI की सहायता आवश्यक थी। संविधान निर्माता तो देशभक्त थे। उनको भारत की प्राचीन धरोहर से प्रेम था। इसलिए नन्दलाल बोस जैसे प्रख्यात चित्रकार से संविधान की मूल प्रत में रामायण, महाभारत और उपनिषद् से सम्बन्धित चित्र बनवाये है। संविधान के भाग ५ की सज्जा मे ऋषि के पास बैठकर शिष्य उपनिषदीय ज्ञान प्राप्त कर रहे है ऐसा दिखाया गया है। यदि उपनिषदों से (जो वेदों का हिस्सा है) पथ्य होता तो ऐसा क्यों होता ?
याचिकाकर्ता को सर्वोच्च न्यायालय की धर्मनिरपेक्षता पर भी प्रश्न उठाने का साहस दिखाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है - 'यतो धर्मस्ततो जय:।' अर्थात् जहाँ धर्म है, वहाँ विजय है। न्यायपालिका ने यह वाक्य श्रीमद्भगवतगीता से लिया है।महाभारत में इसका अनेक स्थान पर उल्लेख आता है। क्या यह वाक्य किसी धर्म विशेष का प्रचार नहीं करता?
केंद्रीय विद्यालय संगठन का ध्येय वाक्य 'तत् त्वं पूषन् अपावृणु' भी ईशावस्योपनिषद् से लिया गया है, जिसका अर्थ है - 'हे सूर्य ! ज्ञान पर छाए आवरण को हटाएं।' देश के अनेक शिक्षा संस्थानों और सरकारी संघटनों के ध्येय वाक्य भारतीय ग्रंथों से ही लिए गए हैं। इसका क्या यह अभिप्राय है कि यह सब संस्थान हिंदू धर्म के प्रचार के लिए स्थापित किए गए हैं?
बात संस्कृत की लीजिये। संविधान मान्य २२ भाषाओं की सूची मे पहले दिन से ही संस्कृत है। उसे बाद मे नही जोडा है जैसीे कुछ अन्य भाषाएं जुडी है। हिन्दी को यद्यपि राजभाषा कहा गया है फिर भी आगे जोडा है कि हिन्दी नयी विकसनशील भाषा होने के कारण उसके विकास का आधार संस्कृत होना चाहिए।
संसद भवन में जहाँ तहाँ संस्कृत मे बोध वाक्य लिखे हैं। जैसे लोकसभा के सभापति के आसन के पीछे "धर्मचक्रप्रवर्तनाय" लिखा है। इन वाक्यों को लेकर पूर्व राज्यसभा सदस्य एवं पूर्व मुख्य न्यायाधीश (हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय) राम ज्याईस ने एक पुस्तक लिख डाली है। भारत सरकार के अधिवक्ता ने न्यायालय मे ठीक ही प्रश्न किया कि क्या इन सब को भी बदलेंगे ?
संस्कृत के बिना तो भारतीय भाषाओं की कल्पना भी नही की जा सकती। यदि संस्कृत के शब्दों को इन भाषाओं से हटाया जायेगा तो सब पंगु बन जायेंगी। संस्कृत को हटाना है तो लायेंगे किसको, इसका उत्तर भी वादी ने न्यायालय में देना चाहिए।
केंद्रीय विद्यालय में गाई जाने वाली हिंदी की प्रार्थना है - 'दया कर दान विद्या का हमें परमात्मा देना। दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना...। ' इस पूरी प्रार्थना में एक बार भी हिंदू शब्द नहीं आता। इस प्रार्थना में एक बार भी किसी हिंदू देवी-देवता का नाम नहीं आता है। फिर किस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह प्रार्थना हिंदुत्व का प्रचार करती है? यह प्रार्थनाएं भारतीय ज्ञान-परंपरा का प्रतिनिधित्व करती हैं और उसी का प्रचार करती हैं।
केंद्रीय विद्यालय में पढ़ने वाले मुस्लिम और ईसाई विद्यार्थियों एवं उनके अभिभावकों ने भी कभी प्रार्थनाओं पर आपत्ति नहीं की।विद्यालय में पढ़ाने वाले मुस्लिम और ईसाई शिक्षकों को भी कभी ऐसा नहीं लगा कि प्रार्थनाएं किसी धर्म का प्रचार कर रही हैं। किन्तु, अब अचानक से एक व्यक्ति को यह प्रार्थनाएं असंवैधानिक दिखाई देने लगी हैं। क्या वाकई उक्त प्रार्थनाएं धर्म का प्रचार करती है या फिर शिक्षा के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करती है?
धर्मनिरपेक्षता के ठेकेदारों को समझना चाहिए कि इन प्रार्थनाओं से विभेद का संकेत मिलता होता, तो उनके गाए जाने पर प्रश्न उठाना उचित होता। सत्य तो यह है कि उक्त प्रार्थनाएं किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रचार नहीं, अपितु भारतीय जीवन मूल्यों का प्रचार कर रही हैं।वितंडावादियों को प्रत्येक बात में सम्प्रदाय को घसीटने की अपेक्षा कुछ रचनात्मक दृष्टिकोण का प्रदर्शन करना चाहिए। हर बात को 'सीमित चश्मे' से देखकर अपनी सांप्रदायिक सोच को उजागर करना उनके लिए भी ठीक नहीं है। इससे समाज की शांति भंग होती है। वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में हिंदू धर्म की व्याख्या 'संप्रदाय' के रूप में नहीं, अपितु एक जीवन पद्धति के रूप में की है। हिंदू ग्रंथों से ली गई उक्त प्रार्थनाएं, श्लोक एवं मंत्र भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि हिंदू धर्म एक जीवन पद्धति है। वह संकीर्ण नहीं है। दुराग्रही नहीं है। जीवन को बांधने वाली नहीं है। यह प्रार्थनाएं हमारी दृष्टि को संकुचित नहीं करतीं, अपितु कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती हैं। यह प्रार्थनाएं हमें उदारमना और श्रेष्ठ नागरिक बनाने में सहायक ही नहीं, अपितु आवश्यक हैं।
भारतीय शिक्षा को राजनीति से परे रखना चाहिए था। किन्तु विदेशों के नकलची होने के कारण हमने उसे सरकार के अधीन कर दिया। सरकार ने उसे अभारतीय समाज निर्माण करने का उपकरण माना। १९९५ मे हमने विश्व व्यापार संघटन के सदस्य बनने के कारण शिक्षा को सेवा उद्योग घोषित किया। परिणाम यह हुआ कि जो समाज सेवा का पवित्र साधन माना जाता था वह अब धन कमाने का माध्यम बन गया। ऐसे मे शिक्षा और संस्कार पक्ष तो दुर्बल होना ही था। उसका परिणाम है इन उलजलूल बातों को महत्व मिलना। अब अनावश्यक बातों मे न्यायालय का बहुमूल्य समय बीतेगा।
जय हो भारत की और उसके विकास की !
, केन्द्रीय विद्यालय का पूर्व छात्र।